Sunday, November 18, 2012

ओबामा और उम्मीदें


अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में राष्ट्रपति बराक ओबामा के दोबारा चुनाव जीतने पर लगभग सभी उर्दू अखबारों ने खबरों के अलावा विशेष सम्पादकीय और लेख प्रकाशित किए हैं। दैनिक `इंकलाब' ने `ओबामा और उम्मीदें' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि ओबामा को यह जीत इसलिए हासिल हुई कि कांटे के इस मुकाबले में निर्णायक वोट उन अल्पसंख्यकों के थे जो हस्पानवी, लातीनी, अमेरिकी, एशियाई और मुस्लिम अमेरिकी कहलाते हैं। हस्पानवी अमेरिकियों ने उन्हें इसलिए वोट दिया कि ओबामा खुद भी हस्पानवी हैं। लातीनी अमेरिकियों ने उनके हाथ इसलिए मजबूत किए कि रोमनी अमेरिका के बहुसंख्यक वर्ग को लुभाने में लगे थे। एशियाई और मुस्लिम अमेरिकियों ने उन पर नए सिरे से इसलिए भरोसा किया कि मिट रोमनी इजरायल प्रेम में तेल  अबीब को ओबामा से ज्यादा सलामियां दाग रहे थे। अमेरिका के आम लोगों को ओबामा में गरीब और मध्यम वर्ग के हितों को साधने की इच्छा दिखाई दे रही थी जबकि रोमनी पूरी तरह पूंजीवादियों के हितों का संरक्षण करते दिखाई पड़ रहे थे। इन्हीं कारणों ने ओबामा की लाज रख ली और व्हाइट हाउस में चार साल और रहने को निश्चित किया। अमेरिकी कानून के मुताबिक कोई व्यक्ति दो ही बार राष्ट्रपति हो सकता है अर्थात् ओबामा को अब कोई अवसर नहीं मिलने वाला है, इसलिए अब उन्हें फैसला करना है कि इतिहास में किस तरह याद किया जाना पसंद करेंगे। न्यायप्रिय राष्ट्रपति या अपने पूर्व की तरह पक्षपाती, हिंसक और डिक्टेटर की हैसियत से।
हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने `ओबामा को दोबारा चुनाव' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव अमेरकी जनता के लिए तो विशेष महत्व रखते ही हैं लेकिन गैर अमेरिकियों और दुनिया के दूसरे देश भी इन चुनावी नतीजों पर गहरी नजर रखते हैं क्योंकि व्हाइट हाउस में तब्दीली की सूरत में कई नीतियों की तब्दीलियों की संभावना पैदा हो जाती है। आशा की जा रही है कि अगले वर्षों में दुनिया में स्टेटेजिक लिहाज से बड़ी तब्दीलियां होंगी। अफगानिस्तान से अमेरिकी और नाटो फौज की वापसी, ईरान और मध्य एशिया के मामलात, चीन जापान विवाद, उत्तरी कोरिया से चल रहा विवाद, मध्य पूर्व में बेचैनी और गृहयुद्ध से लेकर अफ्रीकी देशों में बेचैनी की लहर तक कई समस्याएं हैं जो हल की इच्छुक हैं। यही कारण है कि दुनियाभर की निगाहें राष्ट्रपति चुनाव पर लगी थीं ताकि इनकी रोशनी में आगे आने वाली संभावित तब्दीली से निपटने की तैयारी की जा सके। लेकिन ओबामा की जीत से हालात ज्यूं का त्यूं रहने की आशा है। जहां तक इस्लामी जगत से अमेरिकी संबंधों का सवाल है। पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने न केवल गवानतामोबे कैद खाना बंद करने का वादा किया था बल्कि मिस्र की जामिया अजहर के ऐतिहासिक भाषण में अमेरिका और इस्लामी जगत के बीच बेहतर संबंधों का वादा किया था और एक स्वतंत्र फलस्तीन राज्य की स्थापना का सपना भी दिखाया था। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसके विपरीत उनकी हिंसक युद्ध नीतियों से इस्लामी जगत में नए महाज खुलने की शंकाएं बढ़ गई हैं।
दैनिक `जदीद मेल' ने `ओबामा का चुनाव' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के इतिहास पर चर्चा करते हुए लिखा है कि 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में जीत के बाद राष्ट्रपति बराक ओबामा गत सौ साल में दूसरी पारी के लिए निर्वाचित होने वाले 7वें अमेरिकी राष्ट्रपति बन गए हैं। 1912 से अब तक अमेरिका में कुल 17 राष्ट्रपति सत्तासीन रहे जिनमें से उनका संबंध रिपब्लिक और 8 का डेमोकेटिक पार्टी से था। इन 17 राष्ट्रपतियों में से फ्रेंकिलन डीरोज ओल्ट अकेले राष्ट्रपति हैं जिन्होंने चार बार अमेरिकी राष्ट्रपति की कमान संभाली। पूर्व में लगातार दो बार राष्ट्रपति बनने वालों में बिल क्लिंटन, जॉर्ज डब्ल्यू बुश और रोनाल्ड रीगन शामिल हैं।
गत सौ साल में दूसरी बार राष्ट्रपति बनने का पहला अवसर विल्सन को 1917 में मिला। इनके शासनकाल में प्रथम विश्व युद्ध हुआ इसके बाद संयुक्त राष्ट्र परिषद का गठन हुआ।  बराक ओबामा से पूर्व दो बार चुने जाने वाले आखिरी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश थे जो 2001 में राष्ट्रपति बने और 2009 में ओबामा के राष्ट्रपति बनने तक इस पद पर रहे। बुश शासन काल में सितम्बर 2001 में अमेरिका के शहर न्यूयार्प में होने वाले हमलों के बाद आतंकवाद के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय युद्ध हुआ और यही युद्ध इनके शासन का केंद्र रहा।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' में सहारा न्यूज नेटवर्प के एडीटर एवं न्यूज डायरेक्टर उपेन्दर राय ने पहले पेज पर प्रकाशित अपने विशेष सम्पादकीय के तहत `यह उम्मीद की जीत है' में लिखा है कि भारत की बिजनेस कम्युनिटी को ओबामा की जीत से बहुत उम्मीदें नहीं जगी हैं। भारत की आईटी कम्पनियों को चिंता है कि आउटसोर्सिंग के विरोध में अमेरिका में फिर आवाज उठाई जाएगी। आईटी विशेषज्ञों को आसानी से वीजा नहीं मिलेगा और इसका असर उनके मुनाफे पर पड़ेगा। लेकिन मेरे विचार से यहां बहुत बड़ी चिंता की बात नहीं है। हिन्दुस्तान की आईटी कम्पनियों में इतनी मजबूती आ गई है कि वह इस तरह के चैलेंजों को बर्दाश्त कर सकें। वैसे ओबामा के चार साल के शासन काल में अमेरिका में अपनी आईटी कम्पनियों का कारोबार बढ़ा ही है और कोई कारण नहीं है कि अगले चार साल में ऐसा नहीं होगा। मेरे विचार से ओबामा को देसी आईटी कम्पनियों को महीन चश्मे से नहीं देखा जा सकता। यह सच है कि भारत के लिए उन्होंने कुछ भी अलग नहीं किया है लेकिन उनका यह अप्रोच रहा है। किसी की सीधी मदद करने के बजाय उसकी तरक्की के रास्ते में रुकावट न पैदा करना। दूसरों की आजादी और स्वायत्तता करना और उनका यही अप्रोच दूसरे अमेरिकी राष्ट्रपतियों से बहुत अलग करता है। ओबामा के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने पर हिन्दुस्तान पर क्या असर पड़ेगा। मेरे विचार से अच्छी बात यह है कि हमारे प्रधानमंत्री और अमेरिकी राष्ट्रपति की अच्छी कैमिस्ट्री है जिसका फायदा हमें मिलेगा और पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान में शांति व्यवस्था को बहाल करने की ओबामा की कोशिशें और तेज होंगी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश तेज होगी और इसके चलते हमारे देश में विदेशी निवेश का फ्लो बढ़ेगा।
दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने `फिर `गधा' जीत गया' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में फिर गधा जीत गया और हाथी ने हार मान ली। अमेरिका में दो पार्टियों के बीच ही मुकाबला होता है क्योंकि यहां टू पार्टी व्यवस्था है जिसके तहत डेमोकेटिक पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार आमने-सामने हुआ करते हैं। डेमोकेटिक पार्टी जिसके बारे में है कि वह खुले विचारों की है ने ओबामा को अपना उम्मीदवार बनाया और उनका चुनाव चिन्ह `गधा' था जबकि मिट रोमनी रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार थे जिसके बारे में अमेरिकियों का विचार है कि यह कट्टरपंथी हैं इनका चुनाव चिन्ह `हाथी' था। राष्ट्रपति जंग में `हाथी' `गधे' से हार गया। अमेरिका में गधे को मेहनत, धैर्य, प्रयास का प्रतीक माना जाता है जबकि हमारे यहां यही गधा बेवकूफी का प्रवक्ता कहलाता है। बहरहाल देखने की बात यह होगी कि बराक हुसैन ओबामा की दूसरी पारी किस गधे के गुणों के करीब होती है।

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