Sunday, November 18, 2012

उर्दू के नाम पर रोटियां सेंकते उर्दू के प्रोफेसर


देश के दो बड़े वैचारिक संगठनों जमाअत इस्लामी हिंद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अब्दुल हक अंसारी और पूर्व सर संघ चालक केसी सुदर्शन के निधन पर`दावत सहरोजा' में सम्पादक परवेज रहमानी ने अपने विशेष स्तंभ `खबर-ओ-नजर' में दोनों की समानता पर चर्चा करते हुए लिखा है कि डॉ. अंसारी युवा आयु में तहरीक इस्लामी के काम से जुड़ गए थे और फिर इसके अमीर (अध्यक्ष) चुने गए। इस पद पर रहने के बाद 2007 में  पद से सेवानिवृत्त हुए और शोध एवं लेखनी में व्यस्त रहे। 81 वर्ष की आयु वह दुनिया से इस तरह गए कि अपने ईमान एवं आस्था पर पूरी तरह संतुष्ट थे। केएस सुदर्शन भी युवा आयु में ही आरएसएस की देशभक्ति के नारों से प्रभावित होकर इससे जुड़ गए और इसके  सबसे बड़े पद सर संघ चालक के पद पर पहुंच गए। 9 साल इस पद पर रहने के बाद वह इस पद से सेवानिवृत्त हुए। लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद खामोश से रहते थे, ज्यादा समय अध्ययन में गुजरता था। 81 साल की आयु में दुनिया को छोड़ दिया। दोनों बुद्धिजीवियों की जीवनी में कई पहलुओं में समानता दिलचस्प है। यह दोनों दो बड़ी लेकिन विभिन्न एवं विरोधाभासी संगठनों से जीवन बर जुड़े रहे, इनका नेतृत्व किया लेकिन अंजाम में बुनियादी फर्प रहा। डॉ. अंसारी अपने ईमान और आस्था पर संतुष्ट रहते दुनिया से विदा हुए वहीं केएस सुदर्शन अपने आखिरी दिनों में बेचैन और परेशान देखे गए जिससे महसूस होता है कि कम से कम इस्लाम और मुसलमानों के सिलसिले में अब तक की अपनी सोच से संतुष्ट नहीं हैं और इस पर पुनर्विचार कर रहे हैं। यदि उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया था जैसा कि उनके साथी बता रहे हैं तब भी उनके मन में कहीं न कहीं यह बात जरूर रही होगी जो उन्हें ताजुल मसाजिद जाने पर मजबूर कर रही थी (हिन्दुस्तान टाइम्स) 16 सितम्बर की रिपोर्ट कहती है कि मिस्टर सुदर्शन कुरआन का गहरा अध्ययन करते थे। बहरहाल इन दोनों में जिसका जो भाग्य था, वह होकर रहा। आगे का मामला अल्लाह के हाथ में है।
राहुल गांधी की कश्मीर यात्रा का स्वागत करते हुए आर्थिक क्रांति से पूर्व सियासी सुधार की जरूरत पर जोर देते हुए दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने कश्मीर जाने के लिए बहुत अच्छे समय का चयन किया है जब वहां आतंकी गतिविधियां कमजोर पड़ी हुई हैं। राहुल गांधी जहां भी गए वहां उनका जोरदार स्वागत हुआ और कहीं भी उनसे टेढ़े-मेढ़े सवाल नहीं पूछे गए। राहुल गांधी के दौरे में टाटा ग्रुप के चेयरमैन रतन टाटा, बिरला ग्रुप के चेयरमैन कुमार मंगलम बिरला, एचडीएफसी के चेयरमैन दीपक पारेख, बजाज आटो लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर राजीव बजाज और विप्रो के चेयरमैन अजीम प्रेम जी जैसे लोग साथ थे। यह लोग देश के अन्य भागों की तरह कश्मीर में भी निवेश करना चाहते हैं लेकिन कश्मीर में पाए जाने वाले आतंक ने इनके कदम रोक रखे हैं। समय गुजरने और राजनैतिक स्थिरता के चलते अब मिलीटेंसी बहुत कम हो गई है। यही कारण है कि पूरी दुनिया से पर्यटक बिना किसी डर के कश्मीर आ रहे हैं जिससे वहां की अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है। निवेशकर्ता सबसे पहले अपने निवेश की सुरक्षा चाहता है और फिर उस पर अधिक से अधिक रिटर्न। राहुल गांधी को एवं इन उद्योगपतियों को कश्मीर के मामले पर सरकार की ओर से  बनाए गए वार्ताकारों से फीड बैक लेना चाहिए। वार्ताकारों को आशा है कि कश्मीरियों के दुख-दर्द को दूर किया जा सकेगा। आर्थिक पहल से पहले राजनीतिक स्थिरता जरूरी है।
हिमाचल प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस द्वारा किसी मुस्लिम को टिकट न दिए जाने पर दैनिक `हमारा समाज' में आमिर सलीम खां ने पहले पेज पर प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि `सेकुलर कांग्रेस की सांप्रदायिक सूची जारी, 68 सीटों में मुस्लिम गायब, शीला दीक्षित हैं ड्रामे की अहम किरदार।' यह तब हुआ है जब गत विधानसभा चुनाव कांग्रेस द्वारा मुसलमानों की अनदेखी के चलते भाजपा को सत्ता मिली थी। दिल्ली की लाडली मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी हिमाचल प्रदेश के लिए उम्मीदवारों की सूची वाली क्रीनिंग कमेटी के चेयरपर्सन के तौर पर पूरी तरह मुस्लिम विरोधी मानसिकता का प्रदर्शन किया। एससी, एसटी सहित सभी अल्पसंख्यक उम्मीदवारों को सूची में शामिल किया गया। लेकिन यदि किसी समुदाय की अनदेखी की गई है तो वह मुसलमान हैं। एक अनुमान के अनुसार हिमाचल प्रदेश की 68 विधानसभा सीटों में से 4 सीटें ऐसी हैं जहां से मुस्लिम उम्मीदवार कामयाब हो सकते हैं जबकि 20 सीटों पर वह निर्णायक भूमिका में हैं। कांग्रेस पार्टी ने अप्रैल में हुए यूपी और उत्तराखंड के चुनाव में भी मुसलमानों का हक छीना था। यूपी में जहां 40 सीटों पर मुसलमान जीतने और 150 पर निर्णायक भूमिका में हैं वहां केवल 49 सीटों पर समेट दिया गया था जबकि उत्तराखंड जहां मुसलमान 7 सीट पर जीत सकता है और 16 पर निर्णायक भूमिका में है। वहां पार्टी ने केवल तीन सीटों पर मुसलमानों को बांध दिया है। देखना यह है कि हिमाचल में मुसलमानों की अनदेखी करने के नतीजे में वही कुछ तो नहीं होने वाला है जो गत विधानसभा चुनाव में हो चुका है।
`कौमी उर्दू काउंसिल की गलतियां' के शीर्षक से केके खुल्लर ने दैनिक `जदीद खबर' में प्रकाशित अपने लेख में उर्दू के नाम पर रोटियां सेंकने वालों को आड़े हाथ लेते हुए लिखा है कि जब गोपीचंद नारंग उर्दू बोर्ड के सदस्य थे और बाद में वह काउंसिल के वाईस चेयरमैन बने। उन्होंने 16 किताबें छपवाईं जो बिक तो न सकीं लेकिन नारंग साहब को रायलटी पाबंदी से मिलती रही। एक आरटीआई के जवाब में यह रहस्योद्घाटन हुआ कि नारंग को दो लाख 54 हजार 544 रुपए की रियलटी मिल चुकी है और आगे भी मिलती रहेगी। शम्सुर्रहमान फारुकी ने अपनी कुर्सी का नाजायज फायदा उठाकर 17 किताबें छपवाईं जो आज काउंसिल के गोदाम में पड़ी सड़ रही हैं। हाल में गोदाम को 70 फीसदी कमीशन पर किताबें बेच कर खाली करने की कोशिश भी नाकाम हो गई। इन्हें एक लाख पांच हजार 499 रुपए की रायलटी मिल चुकी है। तीसरा नाम फिल्मी दुनिया के गुलजार का है जिनकी 18 किताबें इसी संस्था (नेशनल काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंगवेज) ने छापी हैं। गुलजार ने अपने एक बयान में साफ कहा कि उन्हें उर्दू नहीं आती है। इसके बावजूद नारंग के दौर में उर्दू के साहित्य एकाडेमी अवार्ड से नवाजा गया। अभी हाल में नारंग साहब ने उर्दू संस्थानों को आदेश दिया कि वह सरकार का अनुदान न लें, यह भीख है जबकि नारंग साहब सारी उम्र सरकार के अनुदान पर पले हैं। यह वह लोग हैं जो कहते कुछ और करते कुछ और हैं उनकी सूची लंबी है लेकिन इस सूची में सर्वप्रथम नारंग का नाम है।
`नमीश आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' में यूपी के ब्यूरो चीफ फजलुर्रहमान ने अपने लेख में लिखा है कि यूपी में 2007 में हुए सिलसिलेवार कचेहरी बम धमाकों की गुत्थी पांच सालों में नहीं सुलझ सकी है। इन धमाकों के बाद जिस तरीके से एसटीएफ ने गिरफ्तारियां कीं उन पर से अब पर्दा उठता जा रहा है। खासतौर से नमीश आयोग की रिपोर्ट इस मामले में एक अहम दस्तावेज साबित होने वाली है। समाजवादी पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में वादा किया था कि बेकसूरों को रिहा किया जाए। घटनाएं चीख-चीख कर कह रही हैं कि एसटीएफ ने झूठी कहानियां गढ़ी हैं और ऐसा इसने आईबी के इशारे पर किया है।
 कई मुकदमों में यह देखने में आया है कि पुलिस और खुफिया एजेंसियों की झूठी कहानी अदालत में ताश के पत्ते की तरह बिखर गई। श्रीकृष्ण आयोग की तरह नमीश आयोग की रिपोर्ट को भी सार्वजनिक करने की जरूरत है। यूपी सरकार चाहे तो इस रिपोर्ट को विधान परिषद में भी पेश कर सकती है। खुफिया एजेंसियों की बड़ी कहानी इस रिपोर्ट में बंद है। यूपी सरकार यदि ईमानदार है तो उसे रिपोर्ट को उत्तर प्रदेश विधानसभा में पेश करना चाहिए तभी शायद असल अपराधियों के चेहरे से नकाब उठ सके।

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