Monday, August 6, 2012

`सलमान खुर्शीद मिल्ली संगठनों को साइड लाइन करने की परम्परा छोड़ दें'


`अन्ना के आंदोलन को पब्लिक रिस्पांस की कमी' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में स्थिति की समीक्षा करते हुए लिखा है कि जंतर-मंतर पर अनशन कर रही टीम अन्ना के समर्थकों में लगातार कमी आ रही है, कम से कम अनशन स्थल पर भीड़ का अभाव है। भीड़ के लिए तरसते अन्ना के आंदोलन में थोड़ी जान बाबा रामदेव ने आकर पूंकी। इस दयनीय स्थिति के लिए टीम अन्ना खुद ही जिम्मेदार है। वह पहले दिन से न केवल भ्रमित दिख रही है बल्कि अपने भ्रम का प्रदर्शन कर रही है। पहले कहा गया कि जन लोकपाल के लिए आंदोलन है फिर स्टैंड बदल गया और केंद्र सरकार के 15 भ्रष्ट मंत्रियों को निशाने पर लाया गया। इस सूची में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को भी शामिल कर लिया गया। इससे जनता थोड़ी गुमराह हो गई और जनता में आंदोलन के प्रति थोड़ा मोह भंग हो गया। आम जनता इस भ्रष्टाचार से अच्छी तरह परिचित है और इस नतीजे पर पहुंचती जा रही है कि वर्तमान राजनीतिक माहौल में कोई ठोस सुधार नहीं हो सकता। जरूरत तो इस बात की है कि टीम अन्ना खुद आत्म मंथन करे कि आखिर क्यों जनता उनके आंदोलन से उत्साहित नहीं? क्यों यह उत्साह कम होता जा रहा है? अन्ना आंदोलन में भीड़ की कमी से बेशक सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी प्रसन्न होगी पर उसे यह नहीं समझना चाहिए कि भ्रष्टाचार का मुद्दा ही समाप्त हो गया है। भ्रष्टाचार से निपटने में यह सरकार पहले भी असफल थी और आज भी है।
`बर्मा के मुसलमानों से सबक लो' के शीर्षक से मोहम्मद आसिफ इकबाल ने दैनिक`जदीद मेल' में  लिखा है कि बर्मा के मुसलमान प्राचीन नाम `रोहंग' की बुनियाद पर खुद को `रोहंगिया' कहलाते हैं। यह यहां के असली नागरिक हैं और 2006 में एक अनुमान के अनुसार इनकी संख्या 30 फीसदी से भी अधिक थी। बर्मा के रोहंगिया के मुसलमानों की संख्या 8 लाख है जो नागरिकता के अधिकार से भी वंचित कर दिए गए हैं और उन्हें गंदी बस्तियों तक सीमित कर दिया गया है जिनमें वह जानवरों से भी खराब जिंदगी गुजार रहे हैं। शाहजहां का बेटा शाह शुजा औरंगजेब से पराजित होकर बर्मा भाग गया। अहिंसा के प्रचारक बौद्ध बादशाह ने इसकी मजबूरी का फायदा उठाते हुए पनाह देने के बदले उसकी दौलत और बेटी मांगी थी। इंकार पर इसी अहिंसक बादशाह ने शाह शुजा के सभी साथियों की हत्या कर दी थी। 17वीं सदी में हुए इस नरसंहार के बाद से आज तक मुसलमानों की किसी न किसी बहाने हत्या का सिलसिला जारी है। बर्मा जिसे बौद्ध राज्य कहा जाता है, में मुसलमानों को मोबाइल फोन इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध है जिसके पास मोबाइल फोन पकड़ा गया उस पर 10 साल और 25 लाख रुपये जुर्माना किया जाता है। इस के विपरीत बौद्धों और मगों को इसकी खुली छूट है। मोबाइल के इस्तेमाल पर अब तक हजारों मुसलमानों को शहीद किया जा चुका है। यह घटनाएं उन बौद्धों की हैं जिनके मत में जानवरों और कीड़ों तक को मारना बुरा समझा जाता है। वहां मुसलमानों को इस आधार पर मारा जा रहा है कि वह मुसलमान हैं।
`सलमान खुर्शीद वक्फ विधेयक को हलके में न लें' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज'में आमिर सलीम खां ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि पार्टी हाई कमान ने मिल्ली एवं सामाजिक संगठनों के सुझावों के बिना वक्फ संशोधन विधेयक को संसद में पेश न करने की हिदायत दी है। मंत्री महोदय से कहा गया है कि यदि वक्फ संशोधन विधेयक 2010 में संगठनों के सभी सुझावों के लिए और समय चाहिए तो संसद के मानसून सत्र में इस विधेयक को पटल पर रखने की कोई जल्दी नहीं होनी चाहिए बल्कि वक्फ जायदादों के संरक्षण के लिए उचित कानून की जरूरत है। ज्ञात रहे वक्फ संशोधित विधेयक 27 अप्रैल 2010 को जल्दबाजी में लोकसभा से पास कराया गया था लेकिन जब वह विधेयक राज्यसभा के पटल पर रखा गया तो उसका कड़ा विरोध हुआ जिसके नतीजे में अगस्त 2010 को विचार-विमर्श हेतु सलेक्ट कमेटी के हवाले कर दिया गया। तथा कथित तौर पर सलमान खुर्शीद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीअत उलेमा हिंद, आल इंडिया मिल्ली काउंसिल, आल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत, मुस्लिम पालिटिकल काउंसिल आफ इंडिया, वकीलों का संगठन सामना, नेशनल हेरीटेज प्रोटेक्शन काउंसिल और विशेष रूप से पर्सनल लॉ बोर्ड के सुझावों को रद्दी की टोकरी में डाल देना चाहते हैं। जिसके लिए उन्हें पार्टी हाई कमान की ओर से सरल भाषा में समझा दिया गया है कि वह मिल्ली संगठनों को साइड लाइन करने की अपनी परम्परा को छोड़ दें।
`कोकराझार में लीपापोती से काम नहीं चलेगा, समस्या का हल निकालना चाहिए' के शीर्षक से दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि 20 जुलाई को असम के कोकराझार में  बोडो और मुसलमानों के बीच हुई हिंसक घटना को लेकर राज्य के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई को हर तरफ से निशाना बनाया जा रहा है कि इनकी सुस्ती और लापरवाही से कोकराझार के दंगे बड़ी तेजी से बढ़े और अन्य जिलों को भी अपनी चपेट में ले लिया एवं स्वयं कोकराझार पहुंचने के बजाय उन्होंने कई मंत्रियों को वहां भेज दिया जो वहां जमे रहे। मुख्यमंत्री के कहने में यह बड़ी सच्चाई है कि केंद्र सरकार ने फौज भेजने में देरी की एवं केंद्रीय गुप्तचर एजेंसी ने भी अपने दायित्व को पूरी तरह नहीं निभाया और सरकार को फीड बैक नहीं दिया। बोडो और स्थानीय मुसलमानों में नस्ली और सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास बहुत पुराना है। यही कारण है कि मामूली बात पर भी हिंसा भड़क उठती है और स्थिति काबू से बाहर हो जाती है। इसका वास्तविक हल यह है कि मुसलमानों और बोडो के आपसी संबंधों में बिगाड़ के  बजाय दोस्ती पैदा करने की कोशिश की जाए और शांति व्यवस्था को सौ फीसदी निश्चित किया जाए। फौज तो शांति स्थापना के बाद वहां से चली जाएगी। यह स्थानीय पुलिस का कर्तव्य होगा कि वह जख्मी दिलों पर मरहम रखे इसके बिना सांप्रदायिक सौहार्द नहीं हो सकता।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने `विषय बहुत सही, तरीका बिल्कुल गलत' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में अन्ना अनशन पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि अन्ना ने जो मुद्दे उठाए हैं, वह हर भारतीय की हृदय की आवाज है। लेकिन इन समस्याओं, मुद्दों को सरकार से मनवाने के लिए अन्ना हजारे और उनकी टीम ने जो रणनीति अख्तियार की है, आम भारतीय उसे सही नहीं समझता है। वैसे भी अन्ना टीम कई अंदरूनी विरोधाभास के साथ मैदान में उतरी है। एक तरफ तो उसके पुराने साथी दूर-दूर नजर नहीं आ रहे हैं जिन्होंने इंडिया अगेंस्ट करप्शन को परवान चढ़ाया। आज आमिर खां, संतोष हेगड़े और स्वामी अग्निवेश न केवल अनुपस्थित हैं बल्कि अभी तक उन्होंने अन्ना हजारे के समर्थन में कोई बयान भी जारी नहीं किया है। दूसरी तरफ अन्ना तहरीक के एक बड़े समर्थक नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा कर रहे हैं। अन्ना हजारे खुद भी एक बार नरेन्द्र मोदी की तारीफ का नतीजा भुगत चुके हैं। इसलिए अब कोई दूसरा विवाद नहीं चाहते। अन्ना तहरीक से जुड़े एक समर्थक द्वारा नरेन्द्र मोदी की तारीफ करने से यह सवाल खड़ा हो गया है कि यह पूरी तहरीक किसी विशेष राजनीतिक मकसद से तो नहीं चलाई जा रही है।

Sunday, August 5, 2012

`मुसलमान आतंकवादी नहीं, आतंकवाद के शिकार हैं'


`उत्तर  प्रदेश में दंगाइयों के लिए छूट क्यों' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' यूपी के ब्यूरो चीफ फजुलुर्रहमान ने अपने लेख में उत्तर प्रदेश की सांप्रदायिक हिंसा, आगजनी और सरकार की सुस्ती एवं लापरवाही पर चर्चा करते हुए लिखा है कि प्रतापगढ़ प्रशासन ने यदि प्रवीण तोगड़िया को सभा करने की इजाजत नहीं दी थी तो उन्हें रोकने की कार्यवाही की जानी चाहिए थी या फिर दलित बस्ती में कुछ समय के लिए जाने की इजाजत देकर वापसी की व्यवस्था करनी चाहिए था लेकिन हुआ यह कि प्रवीण तोगड़िया और इसके साथ 10 हजार से अधिक की भीड़ अस्थान गांव पहुंच गई और पुलिस के मात्र दो-चार जवान ही मौजूद थे। वहां जो कुछ हुआ उसे स्थानीय लोगों ने बयान करते हुए कहा कि शांति व्यवस्था नाम की कोई चीज नजर नहीं आती। रोजा रखे हुए 10/20 मुसलमान दरगाह में दुबके बैठे थे और अपनी खैर मना रहे थे। आतंक पैदा करने वालों को समाजवादी पार्टी की सरकार और उसकी पुलिस एवं प्रशासन से ऐसी छूट और ऐसी आजादी आश्चर्यजनक है। ऐसे अराजक माहौल में यह आशा रखना कि प्रवीण तोगड़िया के खिलाफ कोई मुकदमा दर्ज किया गया होगा, बेकार है। इसके विपरीत अपने घरों को लौटने वाले पीड़ितों के पुनर्वास में रुकावटें खड़ी की जा रही हैं। जिन आतंकियों ने आग लगाई उनके खिलाफ नामजद मुकदमा दर्ज होने के बावजूद उनकी गिरफ्तारी नहीं हो रही है और अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि यह सांप्रदायिक तत्व अपने आकाओं की मदद से अस्थान गांव के पीड़ितों का जीवन मुश्किल किए हैं। इससे तो यही अंदाजा होता है कि सरकार कहीं न कहीं किसी दबाव में काम कर रही है।
`दंगा पर रोक लगाइए' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल'  ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि उत्तर प्रदेश और असम में दंगों की आग भड़कने के बाद यह स्पष्ट है कि भारत में एक बार फिर से दंगों की राजनीति शुरू हो चुकी है। सांप्रदायिकता की राजनीति करने वालों ने खुद को मुस्लिम संरक्षक कही जाने वाली कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के अधीन दंगों की राजनीति कर मुसलमानों के साथ-साथ इन दोनों पार्टियों को भी निशाना बनाया है। 2004 में यूपी सरकार के बाद देश में दंगों का सिलसिला लगभग टूट गया था। लेकिन दंगों की वापसी ने फिर देश में चिन्ताजनक स्थिति पैदा कर दी है। इस संदर्भ में खुद को सेक्यूलर कहने वाली कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का यह दायित्व है कि  वह अपने-अपने शासित राज्यों में सांप्रदायिकता से निपटे और दंगों पर रोक  लगाए। यदि यह पार्टियां ऐसा नहीं करती हैं तो 2014 में मुसलमान नाराज होकर घर बैठ जाएंगे और इन दोनों  पार्टियों को नुकसान होगा जो संघ और भाजपा के लिए हितकारी होगा।
`मुसलमान आतंकवादी नहीं, आतंकवाद के शिकार' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज'में यूसुफ रामपुरी ने अपने समीक्षात्मक लेख में लिखा है कि इसमें संदेह नहीं कि आतंकवाद के शिकार दुनिया के सभी वर्ग हैं लेकिन सबसे ज्यादा इसका शिकार मुसलमान हैं। मुसलमानों पर यह आरोप इतनी बार लगाया गया कि मुसलमानों के अतिरिक्त सभी वर्ग अब उन्हें आतंकवादी ही ख्याल करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि को आतंकवाद के तौर पर पेश की गई है। लेकिन यदि इस आरोप का विश्लेषण किया जाए तो सच्चाई सामने आती है कि मुसलमान आतंकवादी नहीं बल्कि आतंकवाद के शिकार हैं। कहीं इनका कबाइली आतंक का सामना है, कहीं सांप्रदायिक एवं नस्ल परस्ती पर आधारित आतंक का सामना है तो कहीं धार्मिक कट्टरता का सामना है और कहीं राज्य आतंक का सामना है। विश्व ताकतें जिस तरह उन पर अत्याचार कर रही हैं उसे आतंकवाद की श्रेणी से अलग नहीं माना जा सकता। इसके अलावा विभिन्न स्थानों और विभिन्न देशों में विभिन्न कौमें मुसलमानों के साथ भेदभाव करते हुए उन्हें सांप्रदायिकता की आग में झोंक रही हैं, उसे भी आतंकवाद से अलग नहीं किया जा सकता। `मुसलमानों की गिरफ्तारी के लिए अपहरण का तरीका ही बहुत कुछ बता देता है' के शीर्षक से `सह रोजा दावत' ने लिखा है कि इसका मकसद मुसलमानों को सजा दिलाना नहीं बल्कि उन्हें बदनाम करके उनका जीना मुश्किल करना और पूरे परिवार एवं मुस्लिम बहुल क्षेत्र को तबाह करना होता है। एक और मामले में 12 साल तक बिना किसी जुर्म के जेल की सजा काटकर 6 मुस्लिम युवक बाइज्जत बरी हुए लेकिन अफसोस कि उनकी रिहाई न तो खबर बन सकी और न कुसूरवार पुलिस वालों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई की गई। राष्ट्रीय मीडिया जो मुसलमानों की गिरफ्तारी की खबर को बढ़ाचढ़ा कर छापने में एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करता है उपरोक्त घटना की इस तरह अनदेखी की गई जैसे कुछ हुआ ही नहीं। 12 वर्ष पूर्व जब प्रतिबंधित एसआईएम को बदनाम करने की सरकारी मुहिम अपनी चरम सीमा पर थी, मस्जिदों पर एक पोस्टर चिपकाने के मामले पर इतना शोर मचाया गया जैसे देश पर पहाड़ टूट पड़ा है। मध्य प्रदेश पुलिस ने 6 मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया। गिरफ्तार युवकों का मुकदमा लड़ रहे परवेज आलम का कहना है कि इस केस में शुरू से खामियां रहीं। एक तो झूठे आरोप लगाए गए और पांच साल बाद चार्जशीट दाखिल की गई। मुकदमे में अलग से चार्ज भी गलत तरीके से लगाया गया। इस तरह 6 आरोपियों को कोई जुर्म न करने के आरोप में 12 साल जेल की सजा काटनी पड़ी। पुलिस यह साबित नहीं कर सकी कि इनका सिमी से कोई संबंध था और न वह यह स्पष्ट कर सकी कि मस्जिद पर लगाया गया पोस्टर का मैटर देशद्रोही था।
`कांग्रेस किस हद तक गठबंधन धर्म निभाने को तैयार है?' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप'के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि संप्रग सरकार की समस्याएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। एक तरफ तो सरकार के गठबंधन साथियों ने सरकार और कांग्रेस पार्टी की नाक में दम कर रखा है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के अन्दर भी अब घमासान मच गया है। राकांपा पहले से ही नाराज चल रही है और अब तो उसके नेताओं ने कांग्रेस नेतृत्व को चुनौती देना आरम्भ कर दी है। शरद पवार के नेतृत्व वाली पार्टी ने यह भी संकेत दिया है कि अगर वह केंद्र सरकार से अलग होते हैं तो उसका असर महाराष्ट्र गठबंधन पर भी पड़ेगा। राकांपा महाराष्ट्र में कांग्रेस सरकार के साथ 13 साल से गठबंधन में है। अभी यह तकरार थमी भी नहीं थी कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ उन ही के कांग्रेस विधायकों ने उनकी शिकायत हाई कमान से कर दी। कांग्रेस की मुश्किल यह होती जा रही है कि पार्टी को केंद्र और प्रादेशिक स्तर पर परस्पर विरोधाभासी राजनीति से जूझना पड़ रहा है।

`खबर' का विश्लेषण करने के सवाल पर उर्दू सम्पादक बगले झांकता नजर आया


नेशनल काउंसिल फार प्रमोशन आफ उर्दू लैंग्वेज (एनसीपीयूएल) द्वारा उर्दू पत्रकारों के लिए जम्मू कश्मीर में गत दिनों वर्पशाप आयोजित किए जाने पर एक हिंदी अखबार ने इसमें शामिल दिल्ली के पत्रकारों की सूची देखकर यह टिप्पणी प्रकाशित की थी कि यह सरकारी पैसे पर मनोरंजन करना है जो वर्पशाप के मकसद से दूर है। उर्दू के एक बड़े अखबार जिसे एक हिंदी अखबार ने खरीदा है, से  दो लोगों को कश्मीर ले जाना सरकारी पैसे का दुरुपयोग है। वर्पशाप उर्दू पत्रकारों का था जिसमें कुछ सम्पादक भी शरीक हो रहे थे इसलिए किसी उर्दू अखबार ने इस वर्पशाप की आलोचना नहीं की लेकिन अब दैनिक`जदीद खबर' ने श्रीनगर के मुशरफ अहमद की पहले पेज पर विशेष रिपोर्ट प्रकाशित कर हिंदी अखबार के संदेह की पुष्टि कर दी है। `श्रीनगर के पत्रकार वर्पशाप में काउंसिल को शर्मिंदगी का सामना, बड़े दैनिक का सम्पादक खबर का विश्लेषण करने के सवाल पर बगले झांका नजर आया' के शीर्षक से मुशरफ अहमद ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि एनसीपीयूएल ने कश्मीर यूनिवर्सिटी के  पत्राचार विभाग  के सहयोग से उर्दू पत्रकारों के लिए सात दिवसीय वर्पशाप आयोजित की थी जिसमें दिल्ली के कुछ उर्दू अखबारों के सम्पादकों का चयन विशेषज्ञों के तौर पर किया गया था लेकिन इनमें से केवल एक पत्रकार के अलावा कोई भी इस योग्य नहीं था कि वह पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं से अच्छी तरह परिचित हो। यही कारण है कि वर्पशाप के दौरान कई ऐसे सवालात उठाए गए जिनका यह `विशेषज्ञ पत्रकार' संतोषजनक उत्तर देने में असमर्थ रहे। इसी तरह जब दिल्ली के एक बड़े अखबार के सम्पादक से `खबर' का विश्लेषण करने के बारे में पूछा गया तो सम्पादक महोदय बगले झांकने लगे। याद रहे काउंसिल ने दो बड़े दैनिक के सम्पादकों के अलावा एक शिक्षिका, एक ऐसे सम्पादक जिसे खुद उर्दू पढ़ना नहीं आती, एक बड़े अखबार से जुड़े एक पत्रकार जिनकी योग्यता केवल मसलकी (पंत) है को विशेषज्ञ के तौर पर चयन किया था और इस सिलसिले में काउंसिल के नए डायरेक्टर ने अपनी ही मीडिया कमेटी से कोई सुझाव लेना जरूरी नहीं समझा।
दैनिक `सहाफत' ने `वाह मुसलमानों! कब्रिस्तान में मुर्दा दफन करने पर लगा दी पाबंदी' के शीर्षक से पहले पेज पर प्रकाशित खबर में लिखा है कि उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के सखेड़ के  मुस्लिम बहुल गांव नराना की पंचायत ने एक आदेश जारी किया है जिसमें 30 वर्षों में आकर रहने वाले लोगों को कब्रिस्तान में मुर्दा दफन करने में पाबंदी लगा दी है। सखेड़ा थाने के अंतर्गत मुस्लिम बहुल गांव नराना में 52 बीघे का कब्रिस्तान है। गत दिनों विवाद के चलते इस कब्रिस्तान को तीन हिस्सों में विभाजित किया गया। एक भाग में तेली, धनी दूसरे में जुलाहे और तीसरे में गाढ़ा बिरादरी के मुर्दों को दफने करने पर सहमति हुई थी लेकिन तीन दिन पहले फिर से विवाद गहरा गया। बताया जाता है कि गत कुछ वर्षों में बाहर से आकर रहने वालों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है उसको लेकर कब्रिस्तान में मुर्दा दफन करने के लिए जगह कम पड़ गई है। इसी पर गांव में ग्राम प्रधान तैयब अली और पूर्व प्रधान सलीम की उपस्थिति में पंचायत बुलाई गई जिसमें फैसला किया गया कि जो लोग 30 वर्षों के अंदर यहां आकर बसे हैं उनके मुर्दों को कब्रिस्तान में दफन करने नहीं दिया जाएगा।
`पश्चिमी बंगाल में मुस्लिम आरक्षण...कितनी हितकारी?' के शीर्षक से कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिंद' में अशफाक अहमद ने अपने विश्लेषण में लिखा है कि पश्चिमी बंगाल में सरकारी नौकरियों में दस फीसदी आरक्षण की खबर पर मुसलमानों ने खुशी जाहिर की थी लेकिन जब आरक्षण लागू करने का आर्डर सामने आया तो सारी खुशी काफुर हो गई। आरक्षण के लिए जो ए कैटेगरी है उसमें 65 जाति हैं जिसमें मुसलमानों के साथ गैर मुस्लिम भी हैं। इसी तरह कैटेगरी बी में भी 78 जातियां हैं। आम सोच यह थी कि ओबीसी आरक्षण के लिए कैटेगरी ए और बी का मकसद यह है कि एक कैटेगरी मुसलमानों के लिए विशेष होगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जानकारों के अनुसार ममता सरकार और पूर्व की वाम मोर्चा सरकार के आरक्षण विधेयक में फर्प केवल इतना है कि नई सरकार ने आरक्षण के लिए बनाई ए और बी कैटेगरी में 21 मुस्लिम जातियों को शामिल किया है। इस कानून का फायदा केंद्र की किसी नौकरी में नहीं होगा इसके अलावा उच्च न्यायिक पदों, प्राइवेट सेक्टर और सिंग्ल पोस्ट कैडर में भी यह  लागू नहीं होगा।
`असारा की मुस्लिम पंचायत' के फैसले को सही बताते हुए वरिष्ठ पत्रकार सैयद मंसूर आगा ने दैनिक `जदीद मेल' के अपने लेख में लिखा है कि यहां की पंचायत ने जो फैसला किया है वह सही है। उदाहरण के तौर पर कोई युवा महिला अकेले बाजारों में न घूमती फिरे और यदि घर से निकले तो चादर ओढ़कर निकले ताकि शरीर के अंग ढके रहे। यह तरीका शरीअत के मुताबिक और हमारे सामाजिक मूल्यों के अनुरूप है। इसलिए बिना संकोच महसूस किए हमें यह कहना चाहिए कि इन पर आपत्ति गलत है। गोहाटी में एक महिला के साथ जो कुछ घटित हुआ उसके बाद राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा ने भी हमारी बहनों, बेटियों और बहुओं को यही सुझाव दिया है।
साप्ताहिक `नई दुनिया' ने `क्या बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद के कैम्पों को हासिल है चिदम्बरम का आशीर्वाद?' के शीर्षक से अपनी रिपोर्ट में  लिखा है कि यदि हवा का झोंका चलता है और पत्ते खड़कते हैं तो सरकार को मालूम हो जाता है लेकिन सरकार को इसकी जानकारी नहीं है कि इसकी नाक के नीचे राइफलों से फायरिंग करने की ट्रेनिंग दी जा रही है, गोलियां चलने की आवाजें मीडिया के लोग सुन रहे हैं लेकिन प्रशासन के कानों में कोई आवाज नहीं आ रही है। सवाल यह कि आखिर हथियार चलाने की यह ट्रेनिंग क्यों दी जा रही है, सांप्रदायिकों की एक पैरालेल फौज क्यों बन रही है जाहिर है यह सब कुछ नेक नीयते पर आधारित नहीं है। मकसद यही है कि मुसलमानों पर हमले की तैयारी पूरी कर ली जाए और जब भी मौका मिले तो इसमें किसी तरह की चूक न होने पाए।
`ओबामा की टिप्पणी इतनी बुरी क्यों  लग रही है' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत की आर्थिक प्रगति को लेकर की गई टिप्पणी का भारत सरकार ने बुरा माना है। देखा जाए तो ओबामा ने कोई बात नहीं की। यही बात भारत की कारपोरेट लाबी बहुत दिनों से कर रही है। लगभग यही बात गत दिनों अमेरिकी पत्रिका टाइम ने भी कही थी। हैरानी है कि इसी अमेरिकी लाबी की नीतियों पर यह सरकार आज तक चलती आ रही है आज इन्हें बुरा क्यों  लग रहा है? मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह खुद अमेरिकी समर्थक हैं, आज ओबामा की बात क्यों चुभ रही है?

`कश्मीरी मुसलमान ईसाई बन रहे हैं'


`कश्मीरी मुसलमान ईसाई बन रहे हैं' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' में प्रकाशित शकील रशीद ने अपने लेख में लिखा है एक अनुमान के अनुसार 1990 में घाटी कश्मीर में अति विचारधारा की शुरुआत के बाद से अब तक कोई 20 हजार कश्मीरियों ने ईसाई धर्म स्वीकार किया है। ईसाई पत्रिका `क्रिशचिनटी-टुडे' ने 2006 में यह दावा किया था कि अब तक कश्मीर में 15 हजार लोग ईसाई धर्म कुबूल कर चुके हैं, बाद के छह वर्षों में इस संख्या में और अधिक वृद्धि हुई है। गत वर्ष ईसाई धर्म पुबूल करने वालों की एक सीडी भी जारी की गई थी जो एक चर्च के अंदर की है। सीडी रमजान के दिनों की ईसाई बनाने की परम्परा `बपतिसमा' का दृश्य था, एक एक करके मुस्लिम युवक आए और पानी के एक छोटे से हौज में डुबकी लगाते और ईसाई पादरी के सामने शपथ लेते कि वह हजरत ईसा के रास्ते (जो अल्लाह के अंतिम दूत पैगम्बर मोहम्मद के आने के बाद निरस्त हो चुका है) के रास्ते पर चलेंगे, सीडी में मर्द भी दिखाए गए और औरतें भी। इस सीडी के आने के बाद मुसलमानों में काफी नाराजगी फैल गई और समय-समय पर इनके खिलाफ गुस्से का इजहार भी होता है लेकिन इसके बावजूद ईसाई मिशनरी अपने कामों में व्यस्त हैं क्योंकि राज्य सरकार और खुद मुस्लिम नेताओं की ओर से यह आवाज आज तक नहीं उठी कि ईसाई मिशनरियों को कश्मीर से निकाल बाहर किया जाए। मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी सहित अन्य मामलों को लेकर जमीअत उलेमा हिंद (अरशद मदनी ग्रुप) के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी द्वारा प्रधानमंत्री से मुलाकात किए जाने पर सालिक ने अपने पत्र में  लिखा है कि मौलाना ने इस सिलसिले में दो या तीन बार प्रधानमंत्री से मुलाकात की है और परम्परानुसार हमारे प्रधानमंत्री ने उनको हर बार की तरह भविष्य में सब कुछ ठीक हो और करने का वादा किया है। हमारे मुस्लिम नेता कितने भोले हैं कि वह हर बार वादों से खुश हो जाते हैं उनको यह भी नहीं मालूम कि जिन शासकों से वह गुहार  लगा रहे हैं वह तो स्वयं इस अत्याचार के जिम्मेदार हैं। हमारे नेता गणों की नजर में जून में लखनऊ में होने वाली एक कांफ्रेंस में पूर्व पुलिस अधिकारी का यह बयान नहीं गुजरा कि मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारियां केंद्र और राज्य सरकारों की मर्जी से की जाती हैं और उनको इसकी जानकारी होती है। प्रधानमंत्री से बार-बार मिलकर आपने कितने मामले हल करा लिए? लोगों को याद होगा कि जामिया नगर में अहले हदीस मस्जिद में तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल को बुलाकर मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी पर विरोध किया गया तो उसके जवाब में एक महीने के अंदर 1-18 की मुठभेड़ सामने आ गई। इसी तरह जब कुछ मुस्लिम नेताओं ने मई में गृहमंत्री पी. चिदम्बरम से कड़े शब्दों में विरोध किया तो उनका गुस्सा भी बाद में बिहार के दरभंगा जिले के मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी की शक्ल में सामने आया। एक अजीब बात यह है कि  पीड़ित मुसलमानों की समस्याएं हल कराने वाली जमाअतें बेहतर मालदार और खुशहाल हैं लेकिन आम मुसलमान तंगी की जिंदगी गुजार रहा है। इसलिए मुस्लिम नेतृत्व को चाहिए कि वह उन कुसूरवार पुलिस अधिकारियों जो उनकी गिरफ्तारी में लिप्त हैं, उन मंत्रियों और अन्य सरकारी  मिशनरी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करें। आखिर कौम की यह दलौत इस काम में तो खर्च की जाए।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' में कासिम सैयद ने मुस्लिम संगठनों पर कटाक्ष करते हुए लिखा है कि बेगुनाह युवकों की रिहाई प्रस्तावों एवं सेमिनारों से नहीं होगी, सियासी लड़ाई के साथ कानूनी जंग भी जरूरी है मुस्लिम नेतृत्व की एकता के बिना ठोस नतीजा संभव नहीं। पहले पेज पर प्रकाशित अपने समीक्षात्मक लेख में कासिम सैयद लिखते हैं दुर्भाग्य से मुस्लिम जमाअतों की बहुसंख्या हथेली पर सरसों उगाना चाहती हैं। उदाहरण के तौर पर इनमें से अधिक के पास पूरे देश में आतंकवाद के आरोप में जेलों में  बंद मुस्लिम युवाओं के आंकड़े तक नहीं। उन्हें जानकारी ही नहीं कि आखिर कितने युवक  गिरफ्तार हैं, कब से हैं, उन पर क्या आरोप हैं और क्या उनके मुकदमे की पैरवी हो रही है? आडवाणी साहस करके प्रज्ञा से मिलकर आए और पीएम को इस पर हो रही ज्यादतियों से संबंधित मांग पत्र भी दिया, लेकिन यहां मैदान खाली है, क्योंकि साहस की कमी है। सियासी नेता संसद के अंदर कहने से डरते हैं, चाहे वह मुसलमान हो या कोई और, किसी मुस्लिम सांसद ने इस मामले पर बहस के लिए स्पीकर को नोटिस नहीं दिया। इससे उनकी गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। सच्चाई यह है कि जब तक बेगुनाह मुस्लिम युवाओं की रिहाई के लिए सरकार पर दबाव बनाने की खातिर कानूनी जंग के साथ हर लोकतांत्रिक तरीका नहीं अपनाया जाएगा, तब तक मामला हल नहीं होगा।
अमेरिकी पत्रिका `टाइम' द्वारा प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर की गई कवर स्टोरी पर चर्चा करते हुए दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि पत्रिका ने अपने ताजा अंक में कहा है कि सिंह उन सुधारों पर सख्ती से आगे बढ़ने के इच्छुक नहीं  लगते जिनसे देश एक बार फिर उच्च आर्थिक वृद्धि के रास्ते पर लौट सकता है। पत्रिका में `ए मैन इन शैडो' शीर्षक से प्रकाशित लेख में सवाल किया गया है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने काम में खरे उतरे हैं, रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक वृद्धि में सुस्ती, भारी वित्तीय घाटा और लगातार रुपए की चुनौती का सामना कर रही कांग्रेस नीत गठबंधन सरकार खुद को भ्रष्टाचार और घोटालों में घिरा पा रही है। उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले इसी पत्रिका ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में लम्बे चौड़े पुल बांधे थे। कहा गया था कि मोदी के नेतृत्व में चौतरफा विकास हुआ है। टाइम मैग्जीन की इस कवर स्टोरी के बाद विभिन्न राजनीतिक दलों में हलचल बढ़ी। प्रतिक्रिया पार्टी  लाइन के मुताबिक रही। अपने चिर-परिचित स्टाइल में लालू प्रसाद यादव ने टिप्पणी की कि अन्ना और उनकी टीम के सदस्य अरविंद केजरीवाल जैसे लोगों ने अमेरिकी पत्रिका को यह लेख बोलकर लिखवाया है। अमेरिका की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है, वह यह बात कैसे कह सकता है।
`पहले  मोदी ने फिर सोनिया ने क्यों दी हर्ष मंदर को सच बोलने की सजा' के शीर्षक से साप्ताहिक `नई दुनिया' ने लिखा है कि हर्ष मंदर ने अपने संगठन सीईएस द्वारा छानबीन के बाद मुसलमानों के बारे में एक रिपोर्ट पेश की जिसमें कहा गया था कि मुसलमानों के उत्थान के लिए चलने वाली सरकारी योजनाएं पूरी तरह नाकाम हैं और इनसे मुसलमानों की बजाय दूसरों को फायदा पहुंच रहा है। यह बात सोनिया गांधी को पसंद नहीं थी। इसलिए उन्हें काउंसिल से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।

पुलिस थानों में मुस्लिम पुलिसकर्मियों की तैनाती टेढ़ी खीर


केंद्रीय गृह सचिव द्वारा सच्चर सुझावों पर अमल करने हेतु मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के थानों में पुलिस इंस्पेक्टर तैनात करने का आदेश दिल्ली पुलिस के समीप एक गंभीर समस्या बनी हुई है क्योंकि पुलिस विभाग में इतनी संख्या में मुस्लिम इंस्पेक्टर नहीं हैं। इस पर चर्चा करते हुए दैनिक `हमारा समाज' में आमिर सलीम खां ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि दिल्ली पुलिस के रिकार्ड के अनुसार दिल्ली में कुल 83 हजार पुलिसकर्मी हैं इसमें अल्पसंख्यक समुदाय का हिस्सा 1.8 फीसदी है जिसमें मुसलमानों की संख्या मात्र 1500 है। आश्चर्यजनक बात यह है कि 1978 में बनाए गए दिल्ली पुलिस आयुक्त के पद पर आज तक एक भी मुसलमान नहीं पहुंच सका है। दिल्ली के 11 जिलों में बहुत सी ऐसी कालोनियां हैं जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं लेकिन इन क्षेत्रों के थानों में एक भी मुस्लिम इंस्पेक्टर नहीं है। केवल जामा मस्जिद थाने में 9 सब-इंस्पेक्टर मुस्लिम हैं। काबिले गौर बात है कि दिल्ली के कुल 186 थाने, 181 एडिशनल एसएचओ, 180 इंस्पेक्टर एटीओ हैं। पुलिस ने थानों के लिहाज से दिल्ली को 11 जिलों में बांटा है जिनमें कुल 172 थाने हैं और लगभग हर चार थानों को कंट्रोल करने के लिए एक एसीपी को तैनात किया गया है। इस लिहाज से दिल्ली में कुल 56 एसीपी हैं। क्राइम पर काबू पाने के लिए सरकार ने कुल 186 थाने बनाए हैं। पुलिस का कहना है कि मुस्लिम युवक पुलिस में भर्ती के लिए नहीं आते जबकि मुस्लिम वर्ग का कहना है कि तैनाती और प्रमोशन में भेदभाव होता है इसलिए मुस्लिम युवक नहीं आ पाते हैं।
पाकिस्तान द्वारा सरबजीत की रिहाई की घोषणा और फिर अपने बयान से पलटकर सुरजीत सिंह कि रिहाई पर हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने `राष्ट्रपति फैसला या मजाक?' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अब बात सुरजीत या सरबजीत की रिहाई की नहीं बल्कि पाकिस्तान सरकार की कार्यप्रणाली की है। इसको यदि चुनी सरकार की मजबूरी व बेबसी कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा। पाकिस्तान सरकार ने इस मामले को `उलझन' बताते हुए इसे मामूली बनाने की कोशिश की है लेकिन वास्तव में यह इतना मामूली नहीं है। सबसे पहला सवाल यह पैदा होता है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति को सुरजीत की रिहाई के लिए आदेश जारी करने की जूरत क्यों पड़ी। सुरजीत 1982 से पाकिस्तान की जेल में है इसकी सजा-ए-मौत को 1989 में बेनजीर के दौर में राष्ट्रपति गुलाम इसहाक खां ने उम्र कैद में बदल दी थी और इसकी उम्र कैद की सजा तो पांच साल पूर्व 2008 में खत्म हो गई लेकिन इसे रिहा नहीं किया गया। यदि सुरजीत को रिहा करना था तो किसी अदालत द्वारा यह प्रक्रिया पूरी की जाती इसके लिए राष्ट्रपति को किसी आदेश की जरूरत ही नहीं थी। दूसरे यह बयान में `माफी' का शब्द इस्तेमाल किया गया। शब्द इस तरह थे `सरबजीत सिंह की सजा-ए-मौत को माफ करते हुए उम्र कैद में तब्दील कर दिया गया और चूंकि इसने 14 साल कैद में गुजार दिए हैं लिहाजा इसे रिहा किया जाता है।' जबकि सुरजीत के साथ ऐसा कोई मामला ही नहीं है, यह तो स्पष्ट रूप से सरबजीत सिंह से संबंधित आदेश थे। इतनी बड़ी गलती के पीछे राज क्या है?
खुद पाकिस्तान के समीक्षकों एवं टिप्पणीकारों का मानना है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने अपना फैसला आईएसआई और फौज के दबाव में बदला है। बेहतर होता कि राष्ट्रपति भवन अपना फैसला देने से पूर्व आईएसआई और फौज से मशविरा कर लेता।
लखनऊ के वरिष्ठ स्तम्भकार हफीज नोमानी ने `क्या सरकार चलाने का तरीका एक ही है?' के शीर्षक से लिखा है कि बटला हाऊस मुठभेड़ की जांच से जब शीला दीक्षित और पी. चिदम्बरम ने इंकार कर दिया तो जिन मुसलमानों को सबसे ज्यादा तकलीफ हुई उनमें समाजवादी सरकार में मंत्री नम्बर दो आजम खां भी थे। आज जब प्रतापगढ़ के एस्थान घटना की जांच और मुसलमानों की बर्बादी की जांच की मांग हिन्दू नेताओं ने की तो सबसे ज्यादा जोर से इंकार करने वाले भी आजम खां हैं। वह फरमाते हैं कि हम पीड़ितों को पक्का मकान बनाकर देंगे जिनमें एक कमरा, एक किचन और एक बाथरूम होगा। फारसी की एक मशहूर कहावत है कि जब तक इराक से जहर की काट आएगी जहरीले सांप का काटा मर जाएगा। शायद आजम खां भी यही चाहते हैं कि सारे पीड़ित मकान का सपना देखते-देखते पांच साल गुजार दें। एस्थान नामी गांव में हुई घटना के बाद जी चाहता है कि यूपी के मुस्लिम विधायकों का एक प्रतिनिधिमंडल मुलायम सिंह से मिले और उनसे कहे कि वह घोषणा पत्र में किया हुआ वादा न पूरा करें। न मुस्लिम लड़कियों को लैपटॉप दें, न ही 30 हजार रुपये दें और न ही बेरोजगारी भत्ता दें। केवल इतना करें कि मुसलमान सिपाहियों और अधिकारियों को मुसलमानों की सुरक्षा का अधिकार दे दें और उनकी संख्या आबादी के अनुपात में कर दें और उन बेगुनाह मुसलमानों को जेल से रिहा कर दें जो बेगुनाह और मासूम हैं जिसे राज्य की पुलिस, सीआईडी और एटीएस सब जानते हैं।
`भारतीय संविधान धार्मिक बुनियादों पर आरक्षण की इजाजत नहीं देता यह अफसाना है या हकीकत?' के शीर्षक से इलाहाबाद हाई कोर्ट के वकील सैयद फरमान अहमद नकवी ने दैनिक `इंकलाब' में प्रकाशित अपने शोधपूर्ण लेख में लिखा है कि यह जानकर आश्चर्य होगा कि जब इस बाबत अधिसूचना 1950 में जारी की गई तो इसने धार्मिक बुनियादों पर आरक्षण को संविधान की धारा 15 का पूर्ण रूप से उल्लंघन कर दिया। हमारी सरकार ने धार्मिक बुनियादों पर आरक्षण की इजाजत संविधान की धारा 341 को इस्तेमाल करते हुए दी है।
यह धारा मंजूरी देती है कि अलग-अलग जाति को स्पष्ट कर उनको उस सूची में जोड़ दिया जाए जो राष्ट्रपति तैयार करता है और जो अधिसूचना द्वारा जारी करता है। अधिसूचना 1950 के पैरा-2 में कहा गया है। `इसके बावजूद जो कोई भी हिन्दू व सिख या बौद्ध धर्म के अतिरिक्त कोई भी धर्म से संबंध रखता है वह इस सूची में शामिल होने के योग्य नहीं समझा जाएगा।'
`बीजापुर मामले की अदालती जांच हो' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में 17 माओवादियों की मौत को लेकर मीडिया में जो खबरें आ रही हैं उसके अनुसार इस क्षेत्र में मारे जाने वाले व्यक्ति माओवादी नहीं बल्कि गांव के मासूम लोग थे। जो इस क्षेत्र की परम्परा के अनुसार एक कबाइली परम्परा का निर्वाह करने के लिए एकत्र हुए थे। मारे गए लोग माओवादी थे या नहीं, इसका फैसला जांच के बाद ही हो सकता है लेकिन इस सिलसिले में दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर विचार करना जरूरी है कि सीआरपीएफ की गोली का निशाना बने लोगों की जांच खुद सीआरपीएफ को ही करनी चाहिए। इस सिलसिले की दूसरी अहम बात एनकाउंटर की है। यह शब्द इतना संदिग्ध हो चुका है कि अब किसी को इस पर विश्वास नहीं आता। अदालतों और अदालत के बाहर दर्जनों एनकाउंटरों के मामलों में यह तय हो चुका है कि एनकाउंटर के नाम पर पुलिस अक्सर मासूम व्यक्तियों का बेदर्दी से कत्ल करती है।

मदरसा बोर्ड की आड़ में लीडरी चमकाने की होड़


राजधानी दिल्ली में मदरसा बोर्ड  को लेकर चल रही राजनीति पर चर्चा करते हुए दैनिक`हमारा समाज' में आमिर सलीम खां ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इस बहाने मौलाना अंसार रजा और मजाज मूगेंरी अपनी लीडरी चमकाने में लगे हुए हैं। ज्यादातर नेताओं को इस बात से कोई लेना देना नहीं होता कि उनकी मुहिम कामयाब होगी या नहीं, उन्हें तो बस अपनी लीडरी चमकाने का मौका मिलना चाहिए, उनका कद ऊंचा हो जाए, दुनिया जाए चुल्हे भाड़ में। दिल्ली में मदरसा बोर्ड या मदरसों को सरकारी सहायता पहुंचाने की योजना के लिए सक्रिय नेताओं के बारे में भी यही देखने को मिल रहा है। मदरसा बोर्ड पर सक्रिय इंटरनेशनल अवंकिंनिग सेंटर के अध्यक्ष मजाज मूगेंरी और गरीब नवाज फाउंडेशन के अध्यक्ष मौलाना अनसार रजा खां का मकसद यह है कि प्रधानमंत्री के 15 सूत्रीय कार्यक्रम के तहत निर्धारित राशि दिल्ली के मदरसों के आधुनिकरण के लिए उपलब्ध हो लेकिन दोनों में मकसद से ज्यादा अपना-अपना ग्रुप मजबूत करने की बीमारी देखी जा रही है। यह बात भी कम दिलचस्प नहीं है कि दोनों नेता जुबानी तौर पर दावा एक साथ होने का करते हैं लेकिन उनकी करनी कथनी पर फिट नहीं बैठती। वह इसलिए कि दोनों नेताओं को गत 7-8 महीने से मदरसों को सहायता पहुंचाने वाली योजना का सेहरा अपने सिर बंधवाने के लिए मीडिया बयानों की होड़ रहती है। उधर दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन सफदर हुसैन खां का कहना है कि वह इस योजना के बारे में उस समय तक कुछ नहीं कह सकते जब तक उनके पास दिल्ली सरकार की ओर से मंजूरी न मिल जाए। बहरहाल दोनों नेता अपनी-अपनी चमकाने में लगे हुए हैं ताकि सियासी गलियारों में उनके कदमों की ऊंचाई लोग दूर से देख सकें।
दिल्ली से 70 किलोमीटर दूर `अपना घर में बच्चियों के साथ हुए दुर्व्यवहार और एक अन्य खबर कि जेल में बंद कैदियों को बीवियों से संबंध बनाने की इजाजत हो, पर चर्चा करते दैनिक `जदीद खबर' में अजीम उल्लाह सिद्दीकी ने अपने समीक्षात्मक लेख में लिखा है कि यह जरूरत जो पंजाब के कैदियों के लिए महसूस की जा रही है, क्या दीनी संगठनों में काम करने वालों को भी ऐसी सुविधा मिल सकेगी? मदरसों और दीनी संगठनों में काम करने वालों को महीनों छुट्टी नहीं मिलती है, उनकी बुनियादी शारीरिक जरूरत कैसे पूरी होगी? क्या मदरसों के शिक्षकों की बुनियादी जरूरत आम इंसानों से अलग है? क्या उनकी शादी नहीं होती? क्या इस्लामी शरीयत ने इस सिलसिले में मदरसों और दीनी संगठनों में काम करने वालों के लिए कोई व्यवस्था दी है? किसी मदरसें के शिक्षक ने बताया कि पांच महीने बाद भी छुट्टी लेने जाएं तो छुट्टी हासिल करना संभव नहीं होता है। पूरे साल या कम से कम छह महीने तक शादीशुदा होकर भी अकेले जिंदगी गुजारना पड़ता है। मेरे विचार से इस्लामी दृष्टिकोण से इसका कोई औचित्य नहीं है। ऐसी सूरत में इन जिम्मेदारों को इस खबर से जरूर नसीहत हासिल करना चाहिए। काम करने वालों का यह बुनियादी हक है और हक से वंचित रखना हमेशा किसी बगावत का कारण होता है। अब हमें फैसला करना है कि हम खुद को किस खाने में रखना पसंद करेंगे।
हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' में इब्ने हमीद चांदपुरी ने `मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारियां और मोसाद' के शीर्षक से लिखा है कि `यदि गिरफ्तारी के पैटर्न का जायजा लिया जाए तो यह नतीजा निकालना मुश्किल नहीं कि यह सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है। यदि देश के पिछले कुछ महीने के सियासी सूरतेहाल पर नजर डालें तो यह अनुचित नहीं कि इस्राइली गुप्तचर एजेंसी मोसाद हमारे घर में पूरी तरह घुसपैठ करती है। सुरक्षा एजेंसियों में आरएसएस के लोग भरे हुए हैं। सरकार चाहे कांग्रेस की हो या किसी और की, एजेंसियां वही करेंगी जो आरएसएस में  बैठे उनके आका उनसे चाहेंगे। हमारे प्रधानमंत्री बेबस हैं जबकि केंद्रीय गृहमंत्री झूठे और मक्कार। गृह मंत्री टूजी स्पेक्ट्रम मामले में इतने ज्यादा घिरे हुए हैं कि आरएसएस और भाजपा से खुफिया साजबाज करके उन्होंने भगवा ब्रिगेड बल्कि मोसाद को खुली छूट दे रखी है। मेरी नजर में मुस्लिम युवाओं को इसी साजबाज और मोसाद के दबाव के चलते बलि का बकरा बनाया जा रहा है।'
`मिस्र के नए राष्ट्रपति मुर्सी की चुनौतियां' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मिस्र में 30 साल तक बिना रोकटोक शासक करने वाले हुस्नी मुबारक के सत्ता से हटने के बाद पहली बार हुए राष्ट्रपति चुनाव में मोहम्मद मुर्सी को जीत हासिल हुई है। उन्हें 51.73 प्रतिशत वोट हासिल हुए हैं जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी पूर्व प्रधानमंत्री अहमद शफीक को 48.2 प्रतिशत वोट मिले। मुर्सी के लिए मुर्सी को पूरी तरह एक लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाने में सबसे बड़ी बाधा सेना हो सकती है। सैन्य सर्वोच्च परिषद के अब तक के रवैये से जाहिर हो गया है कि वह इस लोकतांत्रिक संक्रमण से भयभीत है। मुर्सी के लिए सेना से समन्वय बनाए रखना बड़ी चुनौती होगी और सेना इतनी आसानी से अपनी ताकत कम नहीं होने देगी। मुर्सी ने इस्लामिक लोकतंत्र के साथ सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की घोषणा भी की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके नेतृत्व में मिस्र में लोकतांत्रिक व्यवस्था बहाल होगी और समृद्धि का सर्वथा नया दौर शुरू होगा। देश के इस्लामिक कट्टरता से रोकने की चुनौती भी उनके सामने होगी। `यूपी पुलिस बगावत की राह पर' के शीर्षक से दैनिक`सहाफत' में प्रकाशित यूसुफ रामपुरी ने अपने लेख में लिखा है कि उत्तर प्रदेश में जारी इन दंगों का एक पहलु यह है कि यूपी पुलिस बगावत की राह पर चलती नजर आ रही है जबकि सरकार की कोशिश यह है कि दंगों न हों और पुलिस अपना कर्तव्य निभाए लेकिन ऐसा लगता है कि पुलिस सरकार की एक सुनने के लिए तैयार नहीं है बल्कि पूरी तरह से सरकार को नजरअंदाज कर रही है। उसने सरकार से टक्कर लेने की ठान रखी है। यदि ऐसा है तो सवाल पैदा होना स्वाभाविक है कि क्या यूपी सरकार पुलिस के विरोधी तेवर को कुचलने और उस पर लगाम कसने में कामयाब हो सकेगी? ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है, इसलिए कि सरकार ने अभी तक या तो पुलिस के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया और यदि उठाया भी तो बहुत हल्के अंदाज में। इसके दो कारण हो सकते हैं एक तो यह कि सरकार स्वयं पुलिस से डरी हुई है दूसरे यह कि पुलिस को सरकार के कुछ सदस्यों का समर्थन प्राप्त है। दोनों की परिस्थितियों की अनदेखी नहीं की जा सकती। वैसे दूसरे कारण के सुबूत अभी से मिलने शुरू हो गए हैं। प्रतापगढ़ दंगे को भड़काने में एसपी के एक सांसद ने घिनौनी भूमिका निभाई है। ऐसे में पुलिस के विरोधी तेवर कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

पब्लिक स्कूलों में मुस्लिम बच्चों के दाखिले पर दिल्ली सरकार ने खींचे हाथ


कोलकाता से प्रकाशित उर्दू दैनिक `आजाद हिन्द' ने `देश में हिन्दुत्व व्यवस्था के क्रियान्वयन की फिर कोशिश' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि विश्व में भारत की पहचान एक सेक्यूलर देश के तौर पर की जाती है लेकिन इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि स्वाधीनता पूर्व से ही देश में एक ऐसी शक्ति है जो घृणा और हिंसा के आधार पर हिन्दुत्व नामी विचारधारा के लिए सक्रिय है। कई गैर मुस्लिम बुद्धिजीवी जिनमें भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रय गृह एवं वित्त मंत्री जसवंत सिंह भी शामिल हैं, का दावा है कि पाकिस्तान की मांग भी जनसंघी शक्तियों के सक्रियता की प्रतिक्रिया में की गई थी, अन्यथा मोहम्मद अली जिन्ना हिन्दू-मुस्लिम एकता के बड़े समर्थक थे। स्वाधीनता के बाद इन जनसंघी शक्तियों का मनोबल और बढ़ गया और बड़े स्तर पर देश को हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने की कोशिश की जाने लगी। गांधी जी का वध, बाबरी मस्जिद की शहादत, सांप्रदायिक दंगों के दौरान एक लाख से अधिक मुसलमानों की मौत पर अरबों-खरबों की बर्बादी इसी हिन्दू राष्ट्र बनाने की मुहिम का हिस्सा है। लेकिन यहां की जनता बधाई की पात्र है जिन्होंने घृणा और हिंसा के आधार पर देश की सेक्यूलर व्यवस्था से खिलवाड़ करने वालों को निरस्त कर दिया।
इसके बावजूद कुछ तथाकथित हिन्दू कौम परस्त संगठन ताकतें अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रही हैं। अभी हाल में गोवा में एक पांच दिवसीय सम्मेलन हिन्दू जागरण समिति के नेतृत्व में हुआ है जिसमें देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने पर विचार-विमर्श हुआ। यह बात ध्यान रहे कि यह सब वह संगठन हैं जिनसे जुड़े दर्जनों व्यक्ति आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार हैं। एक दूसरी खबर राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात से है कि यहां कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां पर ऐसे बोर्ड लगे हैं कि `आपका हिन्दू राष्ट्र में स्वागत है।'
महाराष्ट्र की जेलों में बन्द मुसलमानों पर महाराष्ट्र अल्पसंख्यक आयोग की इच्छा पर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस द्वारा कराए गए सर्वे पर चर्चा करते हुए दैनिक`सहाफत' में अनीस अहमद खां ने लिखा है कि 141 पेज की इस सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि महाराष्ट्र की जेलों में बन्द 96 फीसदी मुस्लिम कैदियों पर न तो किसी आपराधिक गिरोह के साथ संबंध का आरोप है और न ही किसी आतंकवादी संगठन के साथ सम्पर्प का। वहीं 25 फीसदी ऐसे भी हैं जिनका कोई वकील भी नहीं हैं। महाराष्ट्र में मुस्लिम कैदियों पर अत्याचार का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि 38 फीसदी मुस्लिम कैदियों को उनके परिवार से मिलने नहीं दिया जाता जो कि डीके बासु गाइडलाइंस का खुला उल्लंघन है। केवल 44 फीसदी कैदियों को ही अपने परिवार से मिलने की इजाजत है। अफसोस की बात तो यह है कि 33 फीसदी कैदियों को तो यह भी नहीं पता कि वह अब किस जेल में बन्द हैं जबकि 61 फीसदी कैदियों से तो एनजीओ भी नहीं मिलती हैं। वहीं एक अहम बात यह भी है कि ऐसे 50 फीसदी मुसस्लम कैदियों की 2012-13 में रिहाई होने वाली है जिनके लिए महाराष्ट्र अल्पसंख्यक आयोग के पास पुनर्वास की कोई योजना नहीं है। सर्वे करने वाले प्रोफेसर विजय राघवन और प्रोफेसर डॉ. रौशनी नायर के अनुसार इनमें से ज्यादातर झूठे मामलों में फंसाए गए मुसलमान हैं या फिर ऐसे हैं जिन्होंने पुलिस अत्याचार के खिलाफ उच्चाधिकारियों से शिकायत कर रखी थी।
लोक जन शक्ति पार्टी महासचिव अब्दुल खालिक द्वारा दिल्ली के पब्लिक स्कूलों में मुस्लिम बच्चों को दाखिला नहीं देने पर 4 फरवरी 2012 को अपनी एक रिपोर्ट में सरकार का ध्यान दिलाया था जिस पर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने संज्ञान लेते हुए मामले को देखने के लिए आयोग सदस्या सैयदा इमाम को जिम्मेदारी दी थी। दैनिक`जदीद मेल' में मोहम्मद अहमद खां की रिपोर्ट के अनुसार आयोग सदस्या और मुख्यमंत्री दिल्ली के इस बाबत हुई बैठक में कोई नतीजा नहीं निकला। सूत्र बताते हैं कि मुख्यमंत्री ने इस पूरे मामले पर अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार इस मामले में बेबस है और वह किसी तरह का दबाव पब्लिक स्कूलों पर नहीं बना सकती। पाठकों को बता दें कि स्कूलों में भेदभाव से जुड़े मामलों का जवाब देने में भी मुख्यमंत्री को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। उन्होंने अपने जवाब में असली सवाल का जवाब देने के बजाय अपनी सरकार का अल्पसंख्यकों से संबंधित उन उपलब्धियों को उजागर करने की कोशिश की थी जो कागजों में हैं, लेकिन जमीन पर उनका कोई वजूद नहीं है।
`ममता के बंगाल में मुसलमान' के शीर्षक से साप्ताहिक `चौथी दुनिया' में डॉ. कमर तबरेज ने अपने लेख में लिखा है कि ममता बनर्जी ने 75 हजार मुस्लिम बच्चों को एजुकेशन लोन और छात्रवृत्ति देने का ऐलान तो किया ही साथ उन्होंने पिछड़े वर्गों के विकास मंत्री ओपेन्दर नाथ बिस्वास को गत महीने यह जिम्मेदारी सौंपी है कि वह एक महीने के अन्दर सरकार को रिपोर्ट दें कि मुस्लिम ओबीसी के अन्दर ऐसे कितने लोग हैं, जिनको सरकारी नौकरियों में पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण दिया जा सकता है। ममता का तर्प है कि बुद्धादीप भट्टाचार्य की पिछली सरकार ने मुस्लिम ओबीसी के लिए 10 फीसदी आरक्षण की घोषणा तो कर दी लेकिन कानूनी तौर पर उसे क्रियान्वित करना मुश्किल है। इसीलिए उन्होंने अपने मंत्री को मुस्लिम ओबीसी की सही स्थिति जानने के लिए सर्वे कराने का आदेश दिया है। यहां कांग्रेस और ममता बनर्जी के काम करने के तरीकों में फर्प स्पष्ट नजर आता है। कांग्रेस पांच राज्यों के चुनाव पूर्व 4.5 फीसदी मुस्लिम आरक्षण की घोषणा यह जानते हुए की कि धर्म के नाम पर मुसलमानों को आरक्षण दिया ही नहीं जा सकता। कांग्रेस को ममता बनर्जी से सबक लेने की जरूरत है।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' में मुंबई के वरिष्ठ पत्रकार सईद हमीद `सीआईए आधुनिक युग की ईस्ट इंडिया कम्पनी' के शीर्षक से लिखे अपने लेख में लिखते हैं। बड़ी विचित्र बात है कि जो देश आतंकवाद के खिलाफ जंग और मादक पदार्थों के खिलाफ जंग के नाम पर बड़ी-बड़ी मुहिम चला रहे हैं और पूरी दुनिया को अपनी फौजों के जूतों तले रौंद रहे हैं, उन पर ही यह आरोप बार-बार लगाया जा रहा है कि दुनिया में आतंक और मादक पदार्थों की स्मगलिंग के वही जिम्मेदार हैं जो ग्लोबलाइजेशन, वर्ल्ड आर्डर और अन्य नामों की आड़ लेकर एक बार फिर पूरी दुनिया पर अपना शासन स्थापित करना चाहते हैं। यह और बात है कि कल तक इस टोले का नेतृत्व ब्रिटिश के हाथों में था और अब अमेरिका  इस टोले का नेता बन चुका है। अफगानिस्तान आज निशाना क्यों बना हुआ है। तालिबान की मुल्ला उमर की सरकार का दोष यह था कि उसने अफगास्तान में मादक पदार्थों की पैदावार बिल्कुल खत्म कर दी थी तो क्या इस काली कमाई से तबाही, बर्बादी फैलाने की इजाजत दी जा सकती है?