Saturday, February 5, 2011

'बेगुनाह मुसलमानों की रिहाई का मामला'

बम धमाकों में लिप्त असीमानंद के इकबालिया बयान को लेकर उर्दू अखबारों ने सम्पादकीय लिखे और आलेख प्रकाशित किया है। इसी के साथ आरएसएस द्वारा इस दाग को मिटाने की मुहिम पर भी विशेष रूप से चर्चा की है। पेश है इस बाबत उर्दू अखबारों की राय।

हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `ऐतमाद' ने `आतंकवाद के दाग को मिटाने की आरएसएस की मुहिम' के शीर्षक से लिखा है। स्वामी असीमानंद के बम धमाकों से संबंधित इकबालिया बयान से आरएसएस को मानसिक रूप से इतना परेशान कर दिया है कि हिन्दू समाज में इस संगठन की छवि मिट्टी में मिल गई है। इसलिए अब उसने अपनी छवि सुधारने के लिए घर-घर दस्तक देने और इन धमाकों के बारे में अपनी गढ़ी हुई कहानी सुनने का फैसला किया है। आरएसएस और इसकी सहयोगी संगठनों सहित भाजपा के कार्यकर्ता बुकलेट वितरित कर यह बताने की कोशिश करेंगे कि किस तरह कांग्रेस अगुवाई वाली यूपीए सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा के नेतृत्व में संघ परिवार की मुहिम का बदला लेने के लिए प्रचारकों और स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी और उनकी तफ्तीश द्वारा आरएसएस पर आतंकवाद का ठप्पा लगाने की कोशिश कर रही है। लेकिन आरएसएस ने तथाकथित देश प्रेम और कौम परस्ती के नाम पर दंगों द्वारा जो अराजकता फैलाई और घृणा के बीज बोए हैं उनके खिलाफ आज भी कोई इसके मुकाबले के लिए मैदान में नहीं उतर रहा है।

आरएसएस प्रवक्ता राम माधव आज अगर यह प्रचार करते हैं कि आरएसएस का आतंकवाद से कोई संबंध नहीं है और राजनीति के चलते उसे बदनाम किया जा रहा है तो दुनिया में हिन्दू धर्म की छवि गलत बन रही है। जाहिर है कि राम माधव का इस तरह का बयान हिन्दुओं को कांग्रेस सरकार से दूर कर सकता है लेकिन यदि सरकार इन बिन्दुओं को विचारणीय नहीं समझती और खुद दूसरी सेकुलर पार्टियों के साथ संघ परिवार की आतंकी गतिविधियों से जनता को अवगत नहीं कराती तो फंदा कांग्रेस के गले में पड़ सकता है।

मुंबई से प्रकाशित दैनिक `इंकलाब' में मुब्बशिर मुशताक ने `मालेगांव मामले में सीबीआई उधेड़बुन की शिकार, इसे कंफ्यूज्ड ब्यूरो ऑफ इंवेस्टीगेशन भी कहा जा सकता है' के अपने आलेख में लिखा है। 17वीं सदी में ईसाई विचारधारा के मशहूर स्तम्भकार एन होसटन ने लिखा था कि कंफ्यूजन मानसिक बिगाड़ का एक संकेत है। मानसिक उधेड़बुन साफ और तुरन्त सोच को अपंग बना देती है जबकि मानसिक बिगाड़ भय और उधेड़बुन के साथ धोखे की ओर ले जाता है। इसी मानसिक बीमारी का शिकार कंफ्यूजन ब्यूरो ऑफ इंवेस्टीगेशन (सीबीआई का पूरा नाम) ने 9 आरोपियों की जमानत का विरोध करते हुए इंसाफ को और पेचीदा बना दिया है। सीबीआई के वकील राज ठाकरे ने मकोका कोर्ट में एक आम कानूनी बिन्दु उठाते हुए कहा कि आरोपियों ने कोई ठोस सबूत पेश नहीं किया है जिसकी बुनियाद पर जमानत अर्जी पर विचार किया जा सके, इसलिए जमानत अर्जी निरस्त की जाए। सीबीआई के इस दृष्टिकोण में `कानूनी बिन्दु' छिपा है कि केवल असीमानंद के इकबाले जुर्म की बुनियाद पर जमानत नहीं दी जा सकती लेकिन सीबीआई के पास कोई ठोस सबूत नहीं जिसकी बुनियाद पर जमानत अर्जी निरस्त करने की बात की जाए। इससे पूर्व मुंबई हाई कोर्ट में सीबीआई कह चुकी है कि इसके पास आरोपियों के संबंध में कुछ सबूत नहीं हैं।

ऐसे हालात में कांग्रेस की सियासी चालाकी उल्लेखनीय है। सभी बातें दिग्विजय सिंह से कहलाती है और दिग्विजय सिंह वह अब बातें कहने के बाद उसे `व्यक्तिगत विचार' करारे देते हैं। मुस्लिम वोट बैंक पर पकड़ के लिए यह अच्छा तरीका है। किसी भी राजनैतिक पार्टी को सेकुलरिज्म पर खरा उतरने के लिए कथनी और करनी में विरोधाभास नहीं होना चाहिए लेकिन कांग्रेस हमेशा से यही करती आई है।

`बेगुनाह मुसलमानों की रिहाई का मामला' के तहत दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने लिखा है। 2006 में मालेगांव में मुसलमानों के बीच धमाके करके 36 मुसलमानों को शहीद कर दिया गया था और 100 से अधिक व्यक्ति जख्मी हो गए थे लेकिन पुलिस और खुफिया विभाग ने इन धमाकों में मुसलमानों को ही फंसा दिया और उन पर अत्याचार कर इकबाले जुर्म भी करा लिया। इस बाबत शनिवार को टाइम्स ऑफ इंडिया ने सामाजिक संगठन अनहद द्वारा जारी किए वह बयानात प्रकाशित किए हैं जिनमें उन मुस्लिम युवाओं की आप बीती बयान की गई है जो विभिन्न मामलों में गिफ्तार किए गए और उनको अलग-अलग राज्यों की पुलिस ने यातना पहुंचाकर इकबाले जुर्म पर मजबूर किया। हिन्दुस्तान के इस विशाल भाग में ऐसी न जाने कितनी दास्तानें हैं जिनके बारे में अभी तक मीडिया को भी कोई जानकारी नहीं मिली है और न जाने कितने बेगुनाह ऐसे हैं जो केवल अपने धर्म के आधार का प्रड़तारित किए जा रहे हैं लेकिन केंद्र एवं राज्य सरकारों की तरफ से इनके बारे में कोई बात नहीं की जा रही है, उल्टे कोर्ट में सीबीआई इनकी जमानत का विरोध कर रही है। आतंकवादियों के एक मुखिया की ओर से अपने जुर्म का इकबाल कर लेने के बाद क्या सीबीआई जैसी जिम्मेदार संस्था से यह आशा की जा सकती है क विह यदि अभी केस वापस नहीं ले सकता तो कम से कम इनकी जमानत की राह में रोड़े न अटकाए।

`सहरोजा दावत' ने `कसूरवार जब बेनकाब हो गए तो बेकसूरों को सजा क्यों' के शीर्षक से लिखा है। जब सूरते हाल बदल चुकी है कि आतंकवाद के आरोप में जो मुसलमान जेलों में बंद हैं वह बेकसूर हैं तो उनको रिहा कर देना चाहिए। सवाल सिर्प रिहाई का नहीं है बल्कि उनके मुआवजे और कसूरवार पुलिस वालों को सजा दिलाने का भी है ताकि भविष्य में फिर से ऐसी गलतियां न हों।

बेहतर तो यही होता कि पोटा और टाडा की तरह कोई समीक्षा कमेटी गठित करने की मांग देश के मुसलमान शांतिप्रिय लोगों के साथ मिलकर करते क्योंकि यह रिहाई भी इतनी आसान नहीं है जितनी समझ में आती है, इसके लिए कानूनी प्रक्रिया से गुजरना होगा लेकिन यदि समीक्षा कमेटी गठित कर दी जाए तो शायद इससे इस काम में कुछ आसानी हो जाए। आतंकवाद की हकीकत सामने आने के बाद अब मुसलमानों को इसे प्रभावी ढंग से उठाना चाहिए। यह कोई नया मामला नहीं है बल्कि ऐसा होता रहता है, जुर्म कोई और करता है और गिरफ्तारी किसी और की हो जाती है। बाद में जब कसूरवाद पकड़े जाते हैं तो वह भी इसी तरह जेलों में रहते हैं जिस तरह बेकसूरवार पहले से हैं। बेकसूरों की रिहाई के लिए बहुत से कानूनी स्तरों से गुजरना पड़ता है। यह काम जितना आसान नजर आता है, वास्तव में नहीं है। लेकिन कोशिश की जाए तो कामयाबी जरूर मिलती है और मुसलमानों को इस समय यही काम करना होगा।

दैनिक `जदीद खबर' ने `मालेगांव के बेकसूर' में लिखा है। मालेगांव बम धमाकों के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए मुसलमानों की समस्या यह है कि वह अपने नहीं किए गुनाह की सजा काट रहे हैं। 2008 में शहीद हेमंत करकरे की अगुवाई में जब मालेगांव बम धमाकों के सिलसिले में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर एण्ड कम्पनी को गिरफ्तार कर लिया गया तो इंसाफ की बात थी कि इन बेकसूर मुसलमानों को रिहा कर दिया जाता। भगवा आतंकवादियों की गिरफ्तारी और इनके खिलाफ मकोका अदालत में कायम किए गए मुकदमों के बाद अब स्वामी असीमानंद के इकबाले जुर्म के बाद इस बात की पूरी आशा थी कि तफ्तीशी एजेंसियां और विशेष मकोका अदालत जमीनी सच्चाई पर विचार करते हुए बेकसूरों की रिहाई के आदेश जारी करेगी। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण इन आरोपियों की रिहाई के रास्ते में रोड़े अटका दिए गए जिस पर मानवाधिकार संगठनों और मुसलमानों की ओर से तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की जा रही है। क्या अदालत और जांच एजेंसियां जमीनी सच्चाई को स्वीकार करते हुए इन आरोपियों को रिहा करने का आदेश जारी करेंगी।

`मालेगांव धमाका 2006 ः सीबीआई ने शुरू किया नया खेल' में सईद हमीद लिखते हैं। दिल्ली में सीबीआई की भूमिका कुछ और है...लेकिन महाराष्ट्र में सीबीआई कुछ और ही रंग दिखा रही है। ऐसा क्यों?

यह कहा जाता है कि वेस्टर्न जोन की सीबीआई के अधिकार क्षेत्र में महाराष्ट्र के साथ गुजरात भी शामिल है तो क्या मुंबई मुख्यालय की सीबीआई पर नरेन्द्र मोदी का ज्यादा प्रभाव है... या महाराष्ट्र और केंद्र सरकार की ओर से मुंबई में कुछ दिल्ली में कुछ और खेल दिखाया जा रहा है...?

3 comments:

  1. आपको पढकर बहुत अच्‍छा लगा .. इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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  2. शानदार पेशकश।

    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
    सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित हिंदी पाक्षिक)एवं
    राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
    0141-2222225 (सायं 7 सम 8 बजे)
    098285-02666

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  3. हौसला अफ़जाई के लिये द्राुक्रिया। आप लोगो के सहयोग का आकांक्षी

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