Thursday, February 10, 2011

बाबरी मामले को लेकर बोर्ड ने नई कमेटी बनाई

पिछले दिनो बर्मा जिसका नया नाम म्यांमार है, में लोकतंत्र की आवाज बनी सान सान सू की रिहाई समेत कांग्रेस द्वारा आरएसएस पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाने और बाबरी मस्जिद के मुकदमें को सुप्रीम कोर्ट ले जाने का मुद्दा उर्दू समाचार पत्रों में छाया रहा।
जमीअत उलेमा हिंद (मौलाना अरशद मदनी ग्रुप) द्वारा बाबरी मस्जिद पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किए जाने को बाबरी मस्जिद काज को नुकसान हो सकता है एवं आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को नजरंदाज कर अपील दाखिल की गई, अपील में 34 से ज्यादा गलतियों की संभावना के तहत दैनिक हमारा समाज ने लिखा है कि जमीअत उलेमा द्वारा जल्दबाजी में दाखिल की गई यह याचिका न तो मुसलमानों के हक में है और न ही बाबरी मस्जिद के हित में। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी के हवाले से लिखा है कि अरशद मदनी ने बोर्ड को नजरंदाज किया है। इस जल्दबाजी के पीछे क्या सोच है यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन इतना तय है कि बाबरी मस्जिद काज को नुकसान पहुंचने का खतरा जरूर पैदा हो गया है। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि इस याचिका में बहुत सी गलतियों को चिन्हित किया गया था। अखबार के मुताबिक फैजाबाद के वरिष्ठ अधिवक्ता अफताब अहमद सिद्दीकी को यह याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर करने से पूर्व भेजी गई थी ताकि उसकी कमियों को देखा जा सके। इसमें 34 गलतियों को चिन्हित किया गया था। यह रिपोर्ट अहम जिम्मेदारों को दी गई थी लेकिन इसे बिल्कुल नजरअंदाज कर दिया गया।
बाबरी मस्जिद मामले में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड द्वारा नई बाबरी मस्जिद कमेटी के गठन पर दैनिक सहाफत ने लिखा है कि पिछली कमेटी की गतिविधियों से असंतुष्ट एवं इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के बाद बोर्ड ने यह नई कमेटी बनाई है। 10 सदस्यों वाली इस कमेटी में पूर्व कमेटी के संयोजक को मात्र सदस्य के तौर पर शामिल किया गया है। जबकि एक नई परम्परा की शुरुआत के चलते इस कमेटी का चेयरमैन बोर्ड सचिव अर्ब्दुरहीम कुरैशी को बनाया गया है और संयोजक बोर्ड की लीगल कमेटी के सदस्य एवं मुंबई हाई कोर्ट के वकील युसुफ हातिम मुछाला को बनाया गया है। बोर्ड ने यह फैसला लखनऊ में अपने पदाधिकारियों की तीन दिवसीय बैठक जो एक से तीन नम्बर 2010 को हुई में लिया है। पूर्व की बाबरी मस्जिद कमेटी के संयोजक डा. कासिम रसूल इलियास ने हाई कोर्ट के फैसले के बाद जिस तरह बयानबाजी शुरू की थी उस पर आल इंडिया मिल्ली काउंसिल के महासचिव
डॉ. मोहम्मद मंजूर आलम ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त कर संयोजक बाबरी कमेटी से कहा था कि वह मौन रहें क्योंकि उनके बयान से कनफियूजन पैदा हो रहा है।
सारा की शादी, टीआरपी के खेल में इस्लाम का मजाक के शीर्षक से साप्ताहिक नई दुनिया ने लिखा है कि निकाह के नाम पर जो बेहुदगी फैलाई गई और सारा को हर किसी से गले मिलते दिखाया गया, वह केवल इस्लामी सिद्धांतों के ही नहीं, भारतीय संस्कृति और नैतकिता के मुंह पर भी जोरदार तमाचा है। बिग बास से पहले किसी भी चैनल ने कम से कम इस तरह का गंदा मजाक नहीं किया था और निकाह व अन्य इस्लामी परम्पराओं को टीआरपी की भेंट नहीं चढ़ाया। कैमरे के सामने शादी करने के लिए दोनों ने 50 लाख रुपए लिए हैं। सुहाग रात की फिल्म बंदी के लिए भी दोनों ने मोटी रकम वसूल की है। टीआरपी के इस खेल के बाद यह बहस छिड़ी हुई है कि क्या एक शादी के बाद दूसरी शादी करना इस्लाम के अनुसार सही है या नहीं।
आरएसएस की तिलमिलाहट के शीर्षक से आलमी सहारा ने लिखा है कि आतंकवादी घटनाओं में आरएसएस के लिप्त होने की बात सामने आने और कांग्रेस की आलोचना के बाद इसके नेताओं की बेचैनी स्वभाविक है। अपनी तिलमिलाहट का इजहार वह जगह जगह रैली और प्रदर्शनों द्वारा कर रहा है। इंदौर में पांच किलोमीटर लंबी रैली इसी का हिस्सा है। इंदौर रैली में आरएसएस ने इस बात की भी व्यवस्था की कि स्वयंसेवकों का स्वागत मुसलमान भी करें और सिख भी, इसके लिए कुछ बुर्के पहनी महिलाएं और दाढ़ी टोपी वाले बोहरा मुसलमान भी स्वागत समारोह में नजर आ रहे थे। दरअसल आरएसएस इन दिनों भारत के विभिन्न समूहों का नैतिक समर्थन हासिल चाहता है क्योंकि वह अपने ऊपर लगे आतंकवाद के आरोप को धोने के लिए ऐसा करना जरूरी समझता है। गत दिनों जंतर मंतर पर एक प्रदर्शन की व्यवस्था कुछ मुसलमानों की ओर से किया गया था जिसका मकसद इंद्रेश कुमार का अजमेर बम धमाकों में नाम आने के खिलाफ विरोध करना था। आरएसएस ने मुसलमानों को करीब करने और मुस्लिम चेहरों को सामने लाने के लिए राष्ट्रीय मुस्लिम संगठन कायम कर रखा है जिनका इस्तेमाल ऐसे मौकों पर किया जाता है। आरएसएस जिस बेचैनी के दौर से गुजर रहा है इसका एहसास करते हुए संघ नेताओं को समझना चाहिए कि भारत में आतंकवाद के नाम पर मुस्लिम युवाओं पर अत्याचार का जो सिलसिला एक लंबे समय से जारी है क्या इसके खिलाफ उसने कभी विरोध प्रदर्शन किया।
बर्मा में स्वतंत्रता सेनानी सान सू की रिहाई के शीर्षक से दैनिक अखबार मशरिक ने लिखा है कि फौजी सरकार के विरुद्ध बगावत का बिगुल बजाने वाली सान सू को आखिरकार रिहा कर दिया गया उन्हें गत सात वर्षों से अपने घर में कैद कर रखा था। उनकी रिहाई पर पूरे देश में उत्साह का माहौल देखा जा रहा है। अखबार के अनुसार बर्मा की जमीन सोना उगलती थी। जमीन उपजाऊ है और अत्याधिक प्राकृतिक संसाधन हैं। किसी समय में बर्मा विश्व का सबसे बड़ा चावल निर्यात करने वाला देश होता था लेकिन अब नहीं। वर्तमान बर्मा दुनिया के गरीब देशों की श्रेणी में आ गया है। भ्रष्टाचार के चलते इसकी मिसाल सोमालिया से दी जाती है। उसकी यह स्थित वास्तव में फौजी शासन का नतीजा है जो उस पर 1962 से काबिज है।
फौजी शासन ने लोकतंत्र के सभी रास्ते बंद कर दिए गए थे यहां तक कि पिछले दिनों हुए चुनाव में सान सू को भी वोट नहीं डालने दिया गया। फौजी शासन ने दावा किया है कि इस चुनाव में बहुत सी राजनैतिक पार्टियों ने भाग लिया है लेकिन यह चोर दरवाजे से फौजी टोले की सरकार है। फौजी शासकों ने केवल अपनी वर्दियां उतार दी हैं और शहरी लिबास पहन लिया है। इस आम चुनाव में फौज की सरपरस्ती में यूनियन सालिडेटरी एवं डेवलपमेंट पार्टी ने इसलिए कामयाबी हासिल की है क्योंकि सान सू की नेशनल लीग फार डेमोकेसी को इस हाल में कि उसकी प्रिय नेता कैद में थी, चुनाव का बायकाट करने पर मजबूर होना पड़ा। 1990 के आम चुनाव में सान सू की पार्टी को 80 फीसदी वोट मिले थे जिसे फौजी शासकों ने निरस्त कर दिया था। लोकतंत्र की लहर में फौजी टोला जिस लिबास में हो ज्यादा देर तक नहीं रह सकता और बर्मा में लोकतंत्र एवं सान सू की जीत होकर रहेगी।

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