Saturday, February 12, 2011

`मुस्लिम देशों में जनता की नाराजगी है या इस्लामी बेदारी'

बीते सप्ताह राष्ट्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार का मुद्दा चर्चा में छाया रहा जबकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले घटनाक्रम के चलते मिस्र में इंकलाब की दस्तक ने सभी मुद्दों को पीछे छोड़ दिया। राष्ट्रीय समाचार पत्रों की तरह उर्दू के अखबारों ने इस पर अपने सम्पादकीय लिखे और आलेख प्रकाशित किए। पेश है इस बाबत कुछ उर्दू अखबारों की राय।
हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `सियासत' ने `मिस्र में टकराव' के शीर्षक से लिखा है। राष्ट्रपति मिस्र हुस्नी मुबारक को हटाने की कोशिश, अरब देशों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया के किस ढांचे में ले जाएगी इसका अनुमान काहिरा के तहरीर स्क्वायर पर एकत्र लाखों की भीड़ को न हो। लेकिन अरब देशों को यह विश्वास हो गया है कि मध्य पूर्व में जन आंदोलन के पीछे कोई न कोई ताकत जरूर है। 2009 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने काहिरा दौरे में लोकतंत्र के लिए मजबूत केस पेश करते हुए जनता में जो प्रेरणा पैदा की, यह उसी श्रृंखला की कड़ी समझी जा रही है। हुस्नी मुबारक ने मिस्र के हालात के लिए अखवानुल मुसलेमीन को जिम्मेदार ठहराया है तो सत्ता के हस्तांतरण के लिए यह कट्टरपंथी संगठन जनता में किस हद तक विकल्प साबित हो सकेगा, यह कहना मुश्किल है। काहिरा के तहरीर स्क्वायर पर एकत्र होकर विरोध करने वालों में मिस्र के आम नागरिक और मध्य वर्गीय से संबंध रखने वाले भी शामिल हैं। शांतिपूर्ण ढंग से विरोध करने वाली जनता यह अच्छी तरह जानती है कि इनके देश के लिए कट्टरपंथी वर्ग एक मात्र हल नहीं है क्योंकि अखवानुल मुसलेमीन को गलत दिनों होने वाले चुनाव में 30 फीसदी वोट ही मिले थे।
कानपुर, फतेहपुर और लखनऊ से एक साथ प्रकाशित दैनिक `अनवारे कौम' ने `भय का शिकार' शीर्षक से लिखा है। मिस्र के इंकलाब की विशेष बात यह है कि वहां की इस्लाम समर्थक पार्टी `अखवानुल मुसलेमीन' बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है। यह वह पार्टी है जिसके हजारों कार्यकर्ताओं, उलेमा और बुद्धिजीवियों को मिस्र की गैर इस्लामी सरकारों ने फांसी पर चढ़ाया और कत्ल किया। राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक के प्रतिद्वंद्वी मोहम्मद अल-बरदाई से इस पार्टी ने कहा है कि वह उनका साथ देगी इस तरह इस बात की संभावना पैदा हो गई है कि मिस्र में इस्लाम समर्थकों की सरकार कायम हो जाए। इस बदलती हुई स्थिति से इस्राइल, अमेरिका तो परेशान हैं ही फ्रांस और ब्रिटेन जैसे इस्लाम विरोधी देश भी बहुत परेशान हैं। उत्तरी अफ्रीका के देश मिस्र में इंकलाब विशेष तौर पर यूरोप के देशों को भी प्रभावित कर सकता है, क्योंकि कई दिनों से चलने वाले प्रदर्शनों ने मिस्र की अर्थव्यवस्था को गड़बड़ा दिया है। दैनिक उपभोग की वस्तुओं के दाम आसमां से बातें कर रहे हैं। इस बात का संदेह पैदा हो गया कि नहर स्वेज बन्द कर दी जाएगी यदि यह बन्द कर दी गई तो सारी दुनिया में तेल की कीमतें आसमां छूने लगेंगी क्योंकि हर दिन पचास जहाज तेल लेकर इस नहर से गुजरते हैं विशेष रूप से यूरोप में जिनता भी तेल सप्लाई होता है वह इसी तरफ से आता है। मिस्र तेल पैदा करने वाला देश नहीं है लेकिन नहर स्वेज एक ऐसी नहर है जो छह हजार किलोमीटर की दूरी को कम करती है और तेल से लदे हुए जहाजों को इसी नहर से गुजरना पड़ता है तभी वह यूरोप में दाखिल हो सकते हैं। इससे साफ स्पष्ट है कि हुस्नी मुबारक के खिलाफ बगावत से यूरोप अत्याधिक प्रभावित होगा, वाणिज्य दृष्टि से भी और वैचारिक दृष्टि से भी मिस्र का यह इंकलाब बहुत अहम है।
कोलकाता और दिल्ली से एक साथ प्रकाशित दैनिक `अखबारे मशरिक' ने `इंकलाब मिस्र को सही दिशा देने और उसकी दशा निर्धारित करने की जरूरत' के तहत लिखा है। मिस्र के राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक का समय खत्म हो गया है और समय की मांग है कि उन्हें सत्ता से अलग हो जाना चाहिए लेकिन वह शरारती बच्चों की तरह जिद पर अड़े हुए हैं। बदहवासी में उन्होंने पुलिस के सिपाहियों को वर्दी उतारकर तहरीर स्क्वायर में प्रदर्शनकारियों पर हमला करने के लिए भेज दिया। मुबारक को समझना चाहिए था कि देश में पुलिस कोई बड़ी ताकत नहीं है, असल ताकत फौज की है जो एक संगठित इकाई है। लेकिन वह उनका साथ देने के बजाय प्रदर्शनकारियों की समर्थक बन गई है। जगह-जगह पुलिस और जनता में तो झड़पें देखने में आईं लेकिन फौज और प्रदर्शनकारियों में कोई टकराव नहीं है। फौज ने स्पष्ट कर दिया है कि वह जनता पर गोलियां नहीं चलाएगी।
वास्तविक लोकतंत्र केवल चुनाव करा देने का नाम नहीं है। मजा तो जब है जब इसका फायदा आम आदमी तक पहुंचे और उसे अतीत और वर्तमान स्पष्ट फर्प महसूस हो। इस उद्देश्य के लिए पूरा लोकतांत्रिक ढांचा नए सिरे से खड़ा करना होगा। हुस्नी मुबारक से छुटकारा पाने के बाद विपक्षी नेताओं को सिर जोड़कर बैठना होगा और जनता की भावनाओं को ध्यान रखते हुए न केवल संविधान को नए सिरे से बनाना होगा बल्कि देश में लोकतांत्रिक समस्याओं का जाल बिछाना होगा।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' में शकील शम्सी ने अपने स्तंभ `क्या मिस्र में लोकतंत्र ला सकेगी अखवानुल मुसलेमीन'? में लिखा है। मिस्र के नेताओं ने विभिन्न तरह की झूठी घटनाएं अखवान आंदोलन के नाम जोड़कर मिस्र की जनता को गुमराह करने की बहुत कोशिशें कीं लेकिन अखवानुल मुसलेमीन की लोकप्रियता में कमी आने के बजाय दिन प्रतिदिन बढ़ती गई और नतीजा यह हुआ कि मिस्र की जनता सड़कों पर आ गई और आज पहली बार दुनिया में यह बात कही जा रही है कि अखवान को बातचीत में शरीक किया जाना चाहिए। विचित्र संयोग है कि 12 नवम्बर 1949 को हसनुल बन्ना को शहीद किया गया और इसके तीस साल बाद 11 फरवरी को ईरान में इस्लामी क्रांति आई और वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई और फिर एक बार हसनुल बन्ना के शहीदी दिवस के आसपास ही एक और मुस्लिम देश में लोकतंत्र का चिराग जलने वाला है लेकिन पश्चिम के षड्यंत्र के चलते मिस्र में लोकतंत्र का फूल खिलने में विलम्ब हो रहा है। अखवानुल मुसलेमीन के नेतृत्व ने बहुत सूझबूझ का परिचय देते हुए अभी तक स्वयं को जन आंदोलन के पीछे रखा है अन्यथा पश्चिमी मीडिया अब तक इस आंदोलन को अलकायदा और तालिबान से जोड़ चुके होते।
`सहरोजा दावत' ने मुस्लिम देशों में यह नाराजगी है या इस्लामी बेदारी? के शीर्षक से लिखा है। अरब, मध्य एशिया और उत्तरी अफ्रीका के मुस्लिम देशों में जन चेतना की जो लहर देखने को मिल रही है और जिस तरह एक के बाद एक मुस्लिम देशों में सरकार विरोधी प्रदर्शन हो रहे हैं। उसे अधिकतर जीडीपी, गरीबी एवं बेरोजगारी और आर्थिक सुधारों के शीशे से देख रहे हैं। कुछ लोग मानव अधिकार और अभिव्यक्त की आजादी और परिवारवाद के संदर्भ में देख रहे हैं। पश्चिमी मीडिया भी लगभग इसी तरह की सोच रखता है और वह शुरू से इन पहलुओं को पेश कर रहा है। लेकिन विश्व में एक ऐसा वर्ग भी है जो इस जन चेतना को इस्लामी बेदारी बता रहा है। उसका कहना है कि जनता की समस्याएं और सरकार से शिकायत सही है। इससे किसी को इंकार नहीं लेकिन यदि यही सच्चाई होती तो विश्व स्तर की आर्थिक संकट के समय जब अमेरिका सहित सभी यूरोपीय एवं पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्था पटरी से उतर गई थी। एक के बाद एक दुनिया की बड़ी से बड़ी आर्थिक संस्था दीवालिया हो गई, मध्य पूर्व के किसी भी देश अमेरिका और यूरोप जैसे हालात क्यों नहीं पैदा हुए, जो प्रदर्शन अब हो रहे हैं वह प्रदर्शन आर्थिक संकट के समय क्यों नहीं हुए। अचानक इतने बड़े स्तर पर एक साथ कई देशों में जन चेतना की यह लहर कैसे चल पड़ी?

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