Tuesday, February 8, 2011

मुसलमान विकास और सत्ता में साझेदारी के एजेंडे पर

यूनाइटेड लेबरेशन फ्रंट (उल्फा) के चेयरमैन राजखोवा को जमानत पर रिहा कर उत्तर पूर्व भाग में चल रहे आतंकवाद को खत्म करने की ओर एक अहम प्रयास किया है और इससे क्षेत्र में उम्मीद की आशा दिखाई पड़ती है।
अंग्रेजों ने यहां चाय बागान में चीनी मजदूरों को हटाकर मध्य भारत के मैदानी क्षेत्र से मजदूर लाना शुरू किया जिससे यहां की जनसंख्या का संतुलन बिगड़ गया और स्थानीय लोगों में बेचैनी पैदा होने लगी। उन्नीसवीं सदी के आखिर में भुखमरी और सूखे के कारण बहुत से लोगों की जानें गईं और यहां के क्षेत्र में स्थानीय आबादी कम हो गई जिसको मुहाजिर मजदूरों द्वारा पूरा किया गया। शुरू में अंग्रेजों ने असम को बंगला प्रेसीडेंसी का हिस्सा बनाकर रखा। बाद में यह भारत सरकार का एक राज्य हो गया। अंग्रेजों के जाने के बाद यहां कई साल तक शांति रही लेकिन स्थानीय आबादी और असमी नागरिकों के बीच घृणा जोर पकड़ती गई और असमी नागरिकों को यह लगता रहा कि देश के अन्य भागों विशेषकर बांगल से आए हुए लोगों ने इनको आर्थिक कंगाली पर पहुंचा दिया है। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बीच पूर्वी पाकिस्तान में चल रहे बंगलादेश आंदोलन के कराण लाखों बंगाली अपना देश छोड़कर यहां पनाह लेने पर विवश हुए उनको बहाना बनाकर यहां के स्थानीय नागरिकों ने यह कहना शुरू कर दिया कि बंगलादेश बन जाने के बावजूद लाखों मुहाजिर असम से वापस नहीं गए हैं जिसके कारण यहां की जनसंख्या का संतुलन बिगड़ गया है। असम के स्थानीय नागरिकों ने असम में बसने वाले सभी बंगालियों को विदेशी कहकर बाहर निकालने की मांग शुरू कर दी और कुछ ही वर्षों बाद यह घृणित आंदोलन सांप्रदायिक रुख अख्तियार कर गया क्योंकि ज्यादातर बंगाली बोलने वाले नागरिक मुसलमान थे। 1979 में पहले ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन और बाद में असम गण परिषद नामी संगठनों ने काफी हिंसात्मक आंदोलन चलाए। राज खोवा ने अपनी रिहाई के बाद कहा कि जब तक इनके सभी साथी रिहा नहीं हो जाते तब तक बातचीत शुरू नहीं हो सकती। भारत सरकार के नरम रुख को देखते हुए ऐसा लगने लगा है कि जल्द ही अन्या नेता भी रिहा हो जाएंगे और असम समस्या का कोई राजनीतिक हल निकलेगा। उल्फा की ओर से बातचीत की मेज पर आने के बाद देशवासी कश्मीरी चरमपंथियों से भी यही आशा करते हैं कि वह बन्दूक छोड़कर बातचीत की मेज पर आने के सिलसिले में पहल करेंगे ताकि साउथ एशिया के इस अहम क्षेत्र में पूर्ण रूप से शांति व्यवस्था स्थापित हो सके। दैनिक `अखबारे मशरिक' ने `श्रीकृष्णा कमेटी की रिपोर्ट की रोशनी में आंध्र प्रदेश में राजनैतिक संकट' में लिखा है कि पृथक तेलंगाना राज्य की स्थापना के सवाल पर इस समय आंध्र प्रदेश में जबरदस्त राजनैतिक भूचाल मचा हुआ है और सरकार अन्दर से डरी हुई है कि यह मामला हाथ से बेहाथ न हो जाए। 1953 में जब जस्टिस फजल अली की अगुवाई में राज्यों के पुनर्गठन का आयोग बनाया गया तो उस समय भी तेलंगाना का मसला खड़ा हुआ था। उस समय राज्य के एक वर्ग ने संयुक्त आंध्र प्रदेश के हक में राय दी थी जिस पर प्रजा राज्यम, सीपीआईएम और मज्लिस इत्तेहादुल मुसलमान आज भी कायम हैं। इसी के साथ पृथक तेलंगाना राज्य की मांग भी उठी थी।
इतना तो तय है कि श्रीकृष्णा रिपोर्ट पर विभिन्न पार्टियों की ओर से भिन्न और एक दूसरे के विपरीत प्रतिक्रिया सामने आएंगी। ऐसे में कोई स्पष्ट फैसला करना केंद्र के लिए एक टेढ़ी खीर साबित होगा। यदि सरकार पृथक तेलंगाना की मांग मान लेती है तो कांग्रेस निश्चित रूप से दो भागों में विभाजित हो जाएगी और विद्रोही कांग्रेसी में जगन रेड्डी की स्थिति मजबूत हो जाएगी। पृथक तेलंगाना राज्य के हक में फैसला देश के विभिन्न भागों में छोटे राज्यों की मांग को समर्थन मिलेगा। कांग्रेस एक तूफानी संकट से गुजर रही है। देखना है कि वह इस संकट से कैसे उबरती है। `इंसाफ की डगर' मैं दैनिक `हमारा समाज' ने लिखा है कि 18 वर्ष बाद मुंबई दंगों के 10 मुस्लिम युवक बरी हो चुके हैं लेकिन यह अपने पीछे कई ऐसे सवाल छोड़ गई है जिनका हर दिमाग में आना स्वाभाविक है। सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह है कि 18 वर्ष बाद ऐसे मुकदमे का फैसला आया है जो प्रथमदृष्टि में पुलिस पक्षपात को जाहिर कर रहा था। इसलिए कि गवाह कोई और नहीं बल्कि कुरला पुलिस स्टेशन के इंस्पेक्टर शिंदे और इनके सहायक थे। दोनों के बयानात में विरोधाभास पाया जा रहा था और सुबूत के तौर पर ऐसी चीजें पेश की गईं जो बाजार में आसानी से उपलब्ध हैं। मतलब यह है कि पुलिस की फर्जी कहानी पहले दिन से उजागर थी फिर भी इतने लम्बे समय के बाद फैसला क्यों आया, आश्चर्यजनक है। 18 वर्ष में एक बच्चा जवान, जवान बूढ़ा और बूढ़ा मौत की दहलीज पर पहुंच जाता है। बहरहाल 18 वर्ष बाद ही सही मुस्लिम युवाओं की बेगुनाही साबित हो गई, पुलिस की भेदभाव वाली भूमिका और मुस्लिम दुश्मनी उजागर हो गई। इस मुकदमे में यह तीन पहलू विचारणीय हैं। हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने `पुलिस प्रशासन में सुधार' में लिखा है। कनाडा में उच्च पद पर भारतीय मूल के टोरंटो पुलिस बोर्ड चेयरमैन आलोक मुखर्जी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि भारतीय पुलिस प्रशासन में तेजी के साथ सुधार स्वयं भारत के हित में है। उन्होंने भारतीय पुलिस शासन को उपनिवेशवाद (अंग्रेजों) शासकों का बरसा करार देते हुए कहा कि उपनिवेशवाद शासन जनता को अपना दुश्मन समझते थे। इसलिए पुलिस फोर्स को उनके खिलाफ इस्तेमाल किया जाता था। उन्होंने कहा कि भारतीय पुलिस राजनेताओं के अधीन है और इस तरह की पुलिस कार्यवाहियों पर रोक लगा देनी चाहिए। उन्होंने भारतीय पुलिस अधिकारियों को अच्छा व्यवहार न करने और कांस्टेबल की कम पगार को पुलिस विभाग में घूस का कारण बताया। भारतीय पुलिस व्यवस्था में सुधार निश्चय ही देश एवं कौम के हित में होगा। यदि पुलिस फोर्स को राजनैतिक शासकों के प्रभाव से आजाद कर दिया जाता है तो देश में 60 साल से अधिक समय से जारी भ्रष्टाचारी पर रोक संभव है। क्योंकि भ्रष्टाचार में लिप्त राजनेता/शासकों को अपने खिलाफ पुलिस कार्यवाही का डर पैदा हो जाएगा, यही वह मोड़ है जहां से भ्रष्टाचार के खात्मे के शुरुआत होगी। दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने `मुस्लिम वोट की जंग' के शीर्षक से लिखा है कि बिहार के बाद अब उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट की जंग छिड़ गई है। विधानसभा चुनाव के दिन जैसे-जैसे करीब आ रहे हैं यह जंग तेज होती जा रही है। सवाल यह नहीं कि यह जंग किस-किस रूप में सामने आ रही है और चुनाव का समय करीब आने पर क्या गुल खिलाएगी? सवाल यह भी है कि इस जंग में खुद मुसलमान कहां खड़े हैं और क्या वह सिर्प मैदान जंग या इस्तेमाल ही होते रहेंगे? मुस्लिम नेताओं व कार्यकर्ताओं की भूमिका केवल शतरंज के मोहरों और बादशाह के सिपाहियों की ही रहेगी या फिर वह सियासी पार्टियों की इस जंग से कोई फायदा भी उठाएंगे? इनकी अपनी आवाज भी जगह हासिल कर सकेगी और इनका नेतृत्व भी अपनी भूमिका निभा सकेगी? राज्य में हर वर्ग और हर जाति की सियासत और उसका रुख स्पष्ट है। यादव मुलायम के साथ हैं।
ब्राह्मण राजपूत, भाजपा और कांग्रेस में विभाजित हैं। बनिये, कायस्थ, भूमिहार और अन्य जातियां भाजपा के साथ हैं, जाट अजीत सिंह के साथ हैं। हिन्दुओं की अन्य जातियों की भी अपनी पार्टी है। ले-दे कर केवल मुसलमान मुफ्त माल हैं। इसलिए उन पर हर तरफ से जाल डाला जा रहा है लेकिन मुसलमान है कि हल्के फुल्के दाने या फिर भावुक नारों में आ जाते हैं। जब तक वह अपने आपको नहीं बदलते, वह खुद ठोस समस्याओं और विकास एवं सत्ता में साझेदारी के एजेंडे पर नहीं आते, मुस्लिम वोट की जंग सकारात्मक रुख अख्तियार नहीं कर सकती।

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