Wednesday, February 2, 2011

राजनीति का मोहरा बना दारुल उलूम

दारुल उलूम देवबंद के नए मोहतमिम (कुलपति) मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी द्वारा यह कहने के बाद कि नरेंद्र मोदी राज्य में मुसलमान भी अन्य संप्रदाय की तरह विकास की ओर अग्रसर हैं और उनके खिलाफ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है, उन पर उंगली उठने लगी है। मौलाना वस्तानवी को दारुल उलूम देवबंद की मजलिस शूरा (कार्यकारिणी) ने गत 10 जनवरी को बहुमत के आधार पर मोहतमिम बनाया था। मजलिस शूरा में 21 सदस्य हैं, जिनमें चार सदस्यों का निधन हो जाने के कारण उनकी जगह खाली है। बैठक में तीन सदस्य उपस्थित नहीं हुए थे। कुल 14 सदस्यों ने अपने मत का प्रयोग किया था, जिनमें चार सदस्यों ने दारुल उलूम के शिक्षक और जमीअत उलेमा हिंद के एक धड़े के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी को, दो सदस्यों ने दारुल उलूम के नायब मोहतमिम मौलाना अब्दुल खालिक मदरासी और आठ सदस्यों ने मौलाना वस्तानवी के पक्ष में मतदान किया। तब फैसले से बौखलाकर अशरद मदनी के करीबी रिश्तेदार मौलाना अब्दुल अलीम फारुकी ने यह शिगूफा छोड़ दिया कि वस्तानवी कासमी नहीं हैं, जबकि दारुल उलूम के संविधान में इस बाबत कोई दिशा-निर्देश नहीं है। यहीं से वस्तानवी को विरोध शुरू हो गया, लेकिन इसकी शक्ल वह नहीं थी, जो मोदी के संदर्भ में दिए गए बयान के बाद पैदा हुई है।
आम मुसलमानों सहित बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मौलाना वस्तानवी के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की, जिसके बाद वस्तानवी ने अपनी स्थिति स्पष्ट की। लेकिन उनके स्पष्टीकरण से बात बनी नहीं और यह आग दारुल उलूम तक पहुंच गई। फिलहाल दारुल उलूम में माहौल अपने हित में नहीं होने की बात स्वीकार कर वस्तानवी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और गुजरात चले गए हैं। और इधर सबकी नजरें 23 फरवरी को होने वाली मजलिस शूरा की बैठक पर टिक गई है।
अनहद की ट्रस्टी और संस्थापक शबनम हाशमी कहती हैं कि मौलाना वस्तानवी का बयान इतनी छोटी घटना नहीं है, जिसे नजरंदाज किया जाए। उनके अनुसार, वस्तानवी ने जिस दिन मोदी से संबंधित बयान दिया, उसके अगले दिन गुजरात नरसंहार पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होने वाली थी। इसके अलावा वस्तानवी को कनाडा जाने के लिए वीजा चाहिए था, जो उन्हें नहीं मिल रहा था। शबनम का कहना है कि मोदी राज्य में मुसलमान के विकास करने की पोल एनएसएसओ की रिपोर्ट ने ही खोल दी है, जिसमें बताया गया है कि राज्य में 2005 के मुकाबले मुसलिम युवाओं की बेरोजगारी का ग्राफ बढ़ा है और उनकी शिक्षा में भी कमी आई है।
बहरहाल, इस पूरे घटनाक्रम का दुखद पहलू यह है कि मोदी को लेकर मुसलमानों को दो खेमों में बांटा जा रहा है और इसे सीधे तौर पर एक शैक्षणिक संस्था से जोड़ दिया गया है। मोदी का विरोध करने वालों को कट्टरपंथी और समर्थन करने वालों को उदारवादी मुसलमान के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। इसी फॉरमूले के तहत सांप्रदायिक ताकतें दारुल उलूम की छवि कट्टरवाद के तौर पर पेश करती हैं। मदनी परिवार द्वारा दारुल उलूम का अपने हित में इस्तेमाल करने का जो आरोप वस्तानवी लगा रहे हैं, उससे वह खुद भी शिकार हैं। नरेंद्र मोदी के संबंध में की गई उनकी टिप्पणी उसी का हिस्सा है।
बीते दिनों एक मंत्री को मूर्ति भेंट करने की घटना पर वस्तानवी का कहना है कि वह तसवीर थी, पर जब एक उर्दू दैनिक ने मूर्ति के साथ उनकी तसवीर छाप दी, तो वह मौन हो गए। वस्तानवी के अनुसार, मूर्ति का मामला शूरा में भी आया था और वह उनके जवाब से संतुष्ट है। अगर यह सच है, तो यह सवाल लाजिमी है कि शूरा पर किसी तरह का दबाव था कि वह मूर्ति और तसवीर में फर्क नहीं कर पाई या फिर जानबूझकर इसकी अनदेखी की गई?
बहरहाल, मौलान अशरद मदनी की प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात के बाद यह कयास तेज हो गए हैं कि कांग्रेस ने मौलाना मदनी को इस पद पर लाने की योजना बना ली है। संभव है कि इसके लिए शूरा की खाली जगह पर ऐसे व्यक्तियों को लाया जाएगा, जो इस मिशन को पूरा करने में सहयोग देगा।

No comments:

Post a Comment