Saturday, February 26, 2011

`गोधरा ः यह इंसाफ नहीं है'

बीते दिनों अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर गोधरा पर विशेष अदालत का फैसला, जामिया मिलिया इस्लामिया को अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने एवं सरकार द्वारा भ्रष्टाचार की जांच के लिए जेपीसी गठित करने की घोषणा जैसे अनेक मुद्दे चर्चा का विषय रहे। पेश है इस बाबत हुई उर्दू के कुछ अखबारों की राय।

`गोधरा ः यह इंसाफ नहीं है' के शीर्षक से दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने लिखा है। हम इसको इंसाफ नहीं कह सकते। बेशक यह मेरे पिता और उन सभी आरोपियों की बेगुनाहों की जीत है जिनको गलत तरीके से फंसाया गया था लेकिन इनकी जिंदगी के जो आठ साल सलाखों के पीछे बीत गए, जिन परेशानियों का सामना इनको और इनके परिवार को करना पड़ा, इसकी भरपायी कौन करेगा और क्या यह संभव है? यह शब्द मौलाना हुसैन उमरजी के बेटे उमर सईद के हैं जिन्होंने गोधरा कांड में अपने पिता की गिरफ्तारी के बाद गोधरा से अहमदाबाद और दिल्ली (निचली अदालत से सुप्रीम कोर्ट) तक पिछले आठ सालों में किस-किस दरवाजे को नहीं खटखटाया, कहां-कहां इंसाफ की गुहार नहीं लगाई। अब आठ साल बाद साबरमती जेल में कायम विशेष अदालत ने फैसला सुनाया तो सुबूत न होने के आधार पर उनकी रिहाई का आदेश जारी कर दिया। निश्चय ही उमर सईद का यह सवाल कि क्या इसी को इंसाफ कहते हैं कि आपको गलत तरीके से गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया जाए। आपकी जिंदगी की कीमती साल, आपका भविष्य और आपके परिवार को तबाह कर दिया जाए, फिर वर्षों बाद फैसला सुनाया जाए कि हमारे पास अपराध का कोई सुबूत नहीं है। भारत के माथे पर इतना ही बड़ा कलंक है जितना बड़ा कलंक गोधरा कांड और इसके बाद के दंगे हैं। जब देश की न्यायिक व्यवस्था ही सवालों के घेरे में आ जाए और कानून की जिस कार्यवाही में एक नहीं दर्जनों बेगुनाहों की जिंदगियां तबाह हो जाया करें, इस व्यवस्था मे पीड़ितों के हित की बात करना बेवकूफी है। यदि आरोपियों को आदलत ने इसलिए छोड़ दिया कि प्रतिवादी के पास कोई छोटे से छोटा सुबूत नहीं था।

`गोधरा ट्रेन घटना' के शीर्षक से दैनिक `ऐतमाद' ने लिखा है। गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन घटना को अहमदाबाद की विशेष अदालत ने षड्यंत्र की थ्योरी को स्वीकार किया है। गुजरात पुलिस की जांच भी इस थ्योरी के तहत की गई, चूंकि अदालत से इस थ्योरी का अनुमोदन हासिल करना था और इसी आधार पर विशेष अदालत ने 31 व्यक्तियों को सजा दी और दूसरे 63 व्यक्तियों को आरोप मुक्त कर दिया। आश्चर्य तो यह है कि इस सूची में गोधरा ट्रेन घटना के अहम आरोपी मौलवी उमरजी भी शामिल हैं। राज्य सरकार की ओर से गठित स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम ने मौलवी उमरजी के संबंध में जो वक्ता भी हैं, यह कहा कि उन्होंने अपने चार सहयोगियों को एस-6 बोगी को जिसमें कारसेवक थे, गोधरा ट्रेन में आग लगाने के लिए प्रोत्साहित किया था। लेकिन षड्यंत्र के असली अपराधी को ही जब बरी कर दिया गया है तो इस षड्यंत्र की अगुवाई किसके हाथ में थी और आरएसएस की ओर से कौन सक्रिय था। यह बात भी सामने नहीं आ सकी है। सेशन अदालत का फैसला दूसरे अर्थों में गुजरात दंगों की जिममेदारी से नरेन्द्र मोदी को छुटकारा दिलाने के सिवाय कुछ नहीं है। अभी यह सवाल बाकी है कि क्या सभी पीड़ितों को इंसाफ मिला है?

`गोधरा की गुत्थी' के तहत दैनिक `इंकलाब' ने लिखा है। 27 फरवरी 2002 को साबरमती एक्सप्रेस में लगने वाली आग अचानक लगी थी या षड्यंत्र का नतीजा था। इस सवाल पर गत नौ वर्ष से बहस हो रही है। इस पर दो सितम्बर 2004 को गठित की गई यूसी बनर्जी कमीशन ने 17 जनवरी 2005 को पेश होने वाली रिपोर्ट में कहा था कि साबरमती एक्सप्रेस में लगने वाली आग संयोगवश अर्थात् अचानक थी इसके पीछे कोई षड्यंत्र नहीं था। तीन मार्च 2002 को नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा गठित किए गए नानावती कमीशन ने 18 सितम्बर 2008 में पेश हेने वाली अपनी रिपोर्ट में यूसी बनर्जी रिपोर्ट का खंडन करते हुए कहा था कि आग संयोगवंश नहीं बल्कि इसके पीछे दो दिन पहले तैयार की गई वह षड्यंत्र था जिसे क्रियान्वित करने के लिए पेट्रोल खरीदा गया और फिर उसे बोगी में उढेला गया या कुछ बयानात के अनुसार दो व्यक्ति डिब्बे में दाखिल हुए जिन्होंने आग लगाई। 31 व्यक्तियों को अपराधी बताने और षड्यंत्र थ्योरी को स्वीकार किए जाने की बात चिंताजनक है। यदि ट्रेन में लगने वाली आग वास्तव में षड्यंत्र का नतीजा था तो क्या अहमदाबाद फोरेंसिक लैबोरेट्री ने रिपोर्ट गलत दी थी? क्या यूसी बनर्जी कमीशन की रिपोर्ट झूठ का पुलिंदा थी क्या दिल्ली की गैर सरकारी संगठनों `हेजारडर्स खेंटर' के विशेषज्ञों की वह रिपोर्ट अर्थहीन थी जिसने षड्यंत्र को निरस्त किया था और जो सिद्धार्थ वरद राजन (`दी हिंड' 22 जनवरी 2005) के अनुसार अब तक की सबसे ठोस रिपोर्ट है।

`गोधरा घटना पर अदालती फैसला' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने लिखा है। इस फैसले के संबंध में विभिन्न प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। भाजपा इस बात को लेकर खुश है कि अदालत ने 27 फरवरी 2002 के साबरमती ट्रेन घटना को षड्यंत्र मानकर इसके और मोदी सरकार के दृष्टिकोण को सही साबित किया है। जबकि कांग्रेस अभी तक यह तय नहीं कर पा रही है कि क्या दृष्टिकोण अपनाया जाए। यही कारण है कि इसके विभिन्न नेताओं और मंत्रियों की प्रतिक्रियाओं में सीधे कहने से बचा जा रहा है। षड्यंत्र के मुख्य आरोपी मौलवी उमरजी और अन्य बरी होने वाले आरोपियों के घर वाले खुश हैं तो दूसरी तरफ गुजरात की नरेन्द्र मोदी सरकार इस मामले में अपील का इशारा दे रही है। लेकिन अदालत के इस फैसले ने कई सवाल भी खड़े किए हैं और इन सवालों का सीधा संबंध गोधरा घटना से नहीं बल्कि अदालती व्यवस्था और ऐसे मामलों में सरकार और राजनेताओं की नीयत से है। सरकार और राजनेता किस तरह ऐसे मामलों को अपने हित के लिए इस्तेमाल करते हैं इसका सुबूत भागलपुर दंगे, मेरठ और मलियाना के 1987 दंगे और 1984 में दिल्ली में होने वाले सिख दंगे हैं। इसी तरह मुंबई दंगों की जांच के लिए बने श्रीकृष्णा रिपोर्ट पर अभी तक सरकार की ओर से कोई कार्यवाही नहीं हुई है। गोधरा मामले के बाद अहमदाबाद में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों का फैसला अभी होना बाकी है जिसमें लगभग 1200 व्यक्ति (जिनमें अधिक मुसलमान) थे, मारे गए थे। इनके अपराधी आज भी घूम रहे हैं।

`गोधरा का इंसाफ' के तहत दैनिक `हमारा समाज' ने लिखा है। अदालत ने जो फैसला सुनाया है उसका सम्मान करना सब का कर्तव्य है लेकिन इससे आम लोगों को मायूसी का सामना करना पड़ा है। 9 वर्षों तक जेल में गुजारने के बाद यदि किसी को बेकसूर करार दिया जाए तो यह इंसाफ नहीं इंसाफ का खून है।

जो व्यक्ति बिना किसी अपराध के 9 साल तक जेल में बन्द हो तो उस पर क्या गुजरी होगी, का अंदाजा लगाया जा सकता है। गुजरात पुलिस ने इतनी बड़ी संख्या में मुसलमानों को गिरफ्तार करके घृणा का जो सुबूत पेश किया है वह अत्याचार के इतिहास का खराब समय माना जाएगा। अब एक अहम सवाल यह है कि क्या इसके बाद हजारों मुसलमानों के कातिलों के जिम्मेदारों को भी सजा मिल सकेगी? और मिलेगी तो कब? इसका हश्र भी मुंबई दंगों और बम धमाकों की तरह तो नहीं होगा कि 1992 में होने वाले दंगों के दोषी तो खुलेआम घूमते रहें और 1993 के बम धमाके के तथाकथित जिम्मेदारों को सजा सुना दी जाए? ऐसा संभव है, इसलिए कि इस देश में इसकी मिसाल मौजूद है।

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