Thursday, February 10, 2011

दारूल उलूम- साख पर आंच

किसी चिंतक ने सच ही कहा है कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। ठीक यही मामला देवबद स्थित अंतरराष्ट्रीय शिक्षण संस्था दारुल उलूम का है। लगभग तीस साल के बाद यह दूसरा मौका है जब दारुल उलूम के मोहतमिम (कुलपति) पद को लेकर विवाद अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका है। अतीत में हुए इस विवाद के चलते ही दारुल उलूम का विभाजन हुआ था। दारुल उलूम की मजलिस शूरा (कार्यकारिणी) के फैसले की बुनियाद पर ही उसके मोहतमिम कारी मोहम्मद तैयब ने दारुल उलूम (वक्फ) बनाकर अपनी राह अलग पकड़ी और जमीअत उलेमा हिंद के अध्यक्ष मौलाना असद मदनी की दारुल उलूम पर पकड़ मजबूत हो गई। कहा जाता है कि ऐसा कांग्रेस की नीति के चलते हुआ क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मुसलमानों की एकजुटता को खत्म कर उन्हें कमजोर करना चाहती थीं। वर्तमान विवाद को इस प्ररिप्रेक्ष्य से अलग कर नहीं देखा जा सकता। फर्क केवल इतना है कि तब मजलिस शूरा ने मदनी परिवार के हक में अपना मत दिया था और अब तीस साल बाद उसने मदनी परिवार को दारुल उलूम से बेदखल कर दिया है।
दारुल उलूम के मोहतमिम मौलाना मरगूर्बुरहमान के निधन के बाद 10 जनवरी को मजलिस शूरा ने अपनी बैठक में बहुसंख्यक मतों के आधार पर मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को दारुल उलूम के मोहतमिम की जिम्मेदारी सौंपी थी। 21 सदस्यीय शूरा में 4 सदस्यों का निधन हो चुका है, जिनका चुनाव किया जाना बाकी है। जबकि तीन सदस्य किन्हीं कारणों से बैठक में शरीक नहीं हुए। इस तरह 14 सदस्यों में से 8 ने मौलाना वस्तानवी को मोहतमिम बनाने के पक्ष में वोट दिया। चार सदस्यों ने इनके प्रतिद्वंद्वी जमीअत उलेमा हिंद के दूसरे घडे़ के अध्यक्ष एवं दारुल उलूम के शिक्षक और मौलाना वस्तानवी के रिश्तेदार मौलाना अरशद मदनी के पक्ष में और दो सदस्यों ने दारुल उलूम के नायब मोहतमिम मौलाना अब्दुल खालिक मदरासी के पक्ष में अपना मत दिया। साफ और निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया से हताश मौलाना अरशद मदनी के एक रिश्तेदार एवं शूरा सदस्य मौलाना अब्दुल अलीम फारूकी ने यह शिगूफा छोड़ दिया कि मौलाना वस्तानवी कासमी नहीं है। इस पद पर किसी कासमी को ही आसीन करना चाहिए। बतातें चलें कि दारुल उलूम से शिक्षा प्राप्त करने वालों को कासमी कहा जाता है। ऐसा वह मौलाना मोहम्मद कासिम नानोतवी द्वारा दारुल उलूम का गठन किए जाने की याद में अपने नाम के आगे लगाकर करते हैं। कोई कासमी मोहतमिम हो, दारुल उलूम का संविधान इस बाबत मौन है। मोहतमिम के चयन का पूरा अधिकार मजलिस शूरा को दिया गया है।
मजलिस शूरा के इस फैसले की अभी स्याही सूखी भी नहीं थी कि मौलाना वस्तानवी के अतीत के कुछ कामों को लेकर विवाद खड़ा हो गया। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ को दिए साक्षात्कार में मौलाना वस्तानवी ने कहा कि गुजरात में मुसलमानों के साथ भेद-भाव नहीं किया जा रहा है। राज्य में मुसलमानों की आर्थिक स्थित अच्छी है। उन्होंने यह भी कहा कि 8 वर्ष पूर्व हुए दंगों को अब याद करने का औचित्य नहीं है। मौलाना वस्तानवी को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थन में बयान देने की जरूरत क्यों महसूस हुई? इसे लेकर मुसलमानों में यह चर्चा जोर पकड़ रही है कि क्या चर्चा में बने रहने के लिए दारुल उलूम का इस्तेमाल किया जा रहा है। पूर्व में मौलाना मरगूर्बुरहमान के समय इसकी शुरुआत हो चुकी थी लेकिन तब वह एक सीमित दायरे में थी। अब जिस तरह खुल कर राजनीतिक बयानबाजी हो रही है, उससे आम मुसलमानों की नाराजगी बिल्कुल स्वाभाविक है। राजनैतिक पार्टियां जिस तरह दिल्ली स्थित जामा मस्जिद को अपने हित के लिए इस्तेमाल करती हैं बिल्कुल उसी तरह दारुल उलूम का इस्तेमाल किया जा रहा है। जानकारों को इस बात पर आश्चर्य है कि मोलाना वस्तानवी गुजरात जाने के बाद दारुल उलूम की बाबत कहने के बजाए मोदी के राज्य में मुसलमान खुशहाल हैं और वह उन्नति कर आगे बढ़ रहे हैं, जैसे बयान दे रहे हैं। इससे उनकी दिलचस्पी का अनुमान लगाया जा सकता है।
बात यहीं खत्म नहीं हुई बल्कि एक उर्दू दैनिक ‘सहाफत’ ने पहले पेज पर उस फोटो को छापकर उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया, जिसमें महाराष्ट्र के एक मंत्री को मौलाना वस्तानवी के हाथों एक मूर्ति पेश करते दिखाया गया था। यह फोटो कोई साल भर पहले के एक कार्यक्रम का है। इस फोटो ने मौलाना वस्तानवी के खिलाफ माहौल बनाने में अहम भूमिका निभाई। दारुल उलूम के कुछ शिक्षकों ने भी इस बयान को दारुल उलूम की साख को नुकसान पहुंचाने वाला बताया। साथ ही दारुल उलूम की मजलिस शूरा से अपने फैसले पर पुनर्विचार का अनुरोध किया। तनजीम मुहिब्बान दारुल उलूम, देवबंद ने तो शूरा के फैसले पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया। तनजीम के महासचिव मौलाना अरशद रजा कासमी बिजनौरी ने शूरा से सवाल किया है कि क्या दारुल उलूम इतना बांझ हो गया है कि इससे पढ़कर निकलने वाले उलेमा में से कोई नहीं मिल सका कि उसे दूसरी संस्था के पढ़े हुए को लेना पड़ा।
पूरे मामले में नाटकीय मोड़ तब आया जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनैतिक सलाहकार अहमद पटेल जिनका संबंध भी गुजरात से है और वे मौलाना वस्तानवी के करीबी रिश्तेदार हैं, का बयान उक्त उर्दू दैनिक में प्रकाशित हुआ। जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि दारुल उलूम का मोहतमिम किसी योग्य व्यक्ति को बनाया जाए। मौलाना वस्तानवी इस पद के लायक नहीं हैं। उन्होंने अपने इस बयान में मौलाना वस्तानवी के पुत्र मुफ्ती हुजैफा के दावे को भी निरस्त कर दिया, जिसमें उसने कहा था कि अहमद पटेल उसके नाना हैं और गुजरात एवं महाराष्ट्र की कांग्रेस इकाई में वह जो चाहते हैं, वही होता है। पटेल ने यह भी कहा कि जो व्यक्ति मोदी का दोस्त हो सकता है वह मेरा कैसे हो सकता है।
इसी बीच मौलाना वस्तानवी ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि टाइम्स ऑफ इंडिया का जो बयान उनसे संबंधित बताया जा रहा है, उसे तोड़ मोड़कर पेश किया गया है। मैं ऐसी कोई बात जो दारुल उलूम देवबंद और अपने बुजुर्गों की परंपरा एवं मान-सम्मान के खिलाफ है, को सोच भी नहीं सकता। मूर्ति के संबंध में उन्होंने कहा कि यह उनके दुश्मनों का षड्यंत्र है। वस्तानवी ने कहा कि गत वर्ष नवंबर में ईद मिलन समारोह के अवसर पर जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों शरीक थे, उन्हें महाराष्ट्र के एक मंत्री को मोमेंटो पेश करना था। उस पर तस्वीर बनी हुई थी, वह मूर्ति नहीं थी। उन्होंने जोर देकर कहा कि तस्वीर और मूर्ति में बड़ा फर्क है। जो लोग इस तस्वीर को मूर्ति कह रहे हैं, वह गलत कह रहे हैं।
मौलाना वस्तानवी दीनी शिक्षा के साथ ही आधुनिक शिक्षा में दक्षता रखते हैं। वे गुजरात के निवासी हैं। वे गुजरात एवं महाराष्ट्र में कई कॉलेज एवं मदरसे चला रहे हैं जिनमें हजारों लड़के शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। मजलिस शूरा ने उनका चयन एक ऐसे समय में किया है जब मदरसों की विचारधारा को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहस चल रही है। दूसरी ओर उनके करीबी रिश्तेदार मौलाना अरशद मदनी जो मदनी परिवार के मुखिया हैं, की कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह से मुलाकात को कांग्रेस एजेंडा को लागू करने के संदर्भ में देखा जा रहा हैं। जानकर मानते हैं कि अहमद पटेल पहले वस्तानवी के समर्थक थे। उन्होंने इसलिए पाला बदला कि वस्तानवी के दारुल उलूम में आने से मुसलमानों को कांग्रेस के करीब लाने में परेशानी होगी। इसके विपरीत मौलाना अरशद मदनी के आने से उत्तर भारत में मुसलमानों को कांग्रेस से जोड़ने में कामयाबी मिलेगी। चर्चा यह भी है कि 10 जनपथ से इसका ब्लू प्रिंट तैयार हो गया है? लेकिन ऐसा कैसे होगा? क्या मजलिस शूरा जिसने मौलाना अरशद मदनी के खिलाफ फैसला दिया था, पर राजनैतिक दबाव डाला जाएगा या फिर उसमें जो जगहें खाली हैं, उन पर ऐसे लोगों को लाने की कोशिश होगी जो इस मिशन को पूरा करने में अपना सहयोग देंगे। ऐसे ही सवालों पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं।

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