Sunday, February 6, 2011

...लेकिन सारे आतंकवादी संघी क्यों हैं?

बीते सप्ताह की राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक घटनाओं को परम्परानुसार उर्दू अखबारों ने चर्चा का विषय बनाया है। इसके बावजूद वहां भाजपा के दो दिवसीय सम्मेलन सहित सारे आतंकवादी संघी क्यों हैं, बम धमाकों की जांच के लिए विशेष ट्रिब्यूनल की मांग और कश्मीर में फौज की कमी करने जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दी गई है। पेश है इस बाबत उर्दू अखबारों की राय।

हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक सियासत में फैसल जाफरी ने भाजपा का दो दिवसीय सम्मेलन ः नकारात्मक राजनीतिक का शानदार प्रदर्शन में लिखा है। भाजपा ने बजट अधिवेशन से पहले कांग्रेस पर दबाव डालने के उद्देश्य से अपने दो दिवसीय सम्मेलन की घोषणा कर दी। यह सम्मेलन गत दिनों गोहाटी असम में आयोजित हुआ है। हमने बिना कारण इसे नकारात्मक राजनीति का प्रदर्शन नहीं कहा है। होना यह चाहिए था कि अपने दो दिवसीय सम्मेलन में भाजपा खुद को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर पेश करती। पार्टी नेता जनता को बताते कि उनके पास देश विकास की कौन सी योजनाएं हैं। सत्ता में आने की सूरत में वह देश की 70 फीसदी जनता को गरीबी, अज्ञानता और भुखमरी से मुक्ति दिलाने के लिए क्या करना चाहते हैं।

लेकिन गोहाटी सम्मेलन में इस तरह की कोई बहस नही हुई, हां, तीन बातों पर विशेष ध्यान दिया गया। भ्रष्टाचार, सोनिया गांधी का व्यक्तित्व और नेतृत्व एवं महंगाई भ्रष्टाचार निश्चय ही एक गंभीर मसला हैं। भाजपा इस भ्रम में है कि इस मामले पर वह कांग्रेस को लोकसभा भंग करने और नए चुनाव कराने पर विवश कर सकती है आडवाणी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि वर्तमान सरकार ज्यादा समय तक नहीं चल सकती, आप लोग चुनाव की तैयारी कीजिए। जो बात वह नहीं कह सके कि वह बहुत जल्द भारत के प्रधानमंत्री बनने वाले हैं। इससे हटकर हमें अच्छी तरह याद है कि जो बात आडवाणी ने गोहाटी में कही बिल्कुल वही बात अटल बिहारी वाजपेयी ने जनवरी 2006 में मुंबई में भाजपा अधिवेशन में कही थी राजनाथ सिंह को नया अध्यक्ष मनोनीत किया गया था। जहां तक भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी का संबंध है वह दो चार भोंडे शब्दों का इस्तेमाल किए बिना भाषण नहीं दे सकते। उन्होंने सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए कहा, वाह रे राजा, कांग्रेस का बजाया बाजा। स्पष्ट रहे कि यह भाषा राजनीतिक नेताओं की नहीं मुंबई की सड़कों पर आवारागर्दी करने वाले युवाओं की हो सकती है जिसे स्थानीय भाषा में टपोरी कहा जाता है।

दैनिक मुनसिफ ने जनता समर्थन की प्राप्ति के लिए पहले के शीर्षक से लिखा है। 2जी स्पेक्ट्रम में राजा, कामनवेल्थ खेलों में कलमाड़ी और आदर्श सोसायटी में अशोक चौहान से किनारा करके केंद्र और कांग्रेस ने खुद का दामन साफ रखने की कोशिश तो की है लेकिन दो दशक पूर्व बोफोर्स दलाली वाले मामले में इन्कम टैक्स ट्रिब्यूनल के फैसले ने तो सब कुछ बेनकाब कर दिया है। सरकार और कांग्रेस शुरू से कहती रही है कि बोफोर्स सौदे में न तो मध्य व्यक्ति या और न ही कमीशन दिया गया लेकिन जब केंद्रीय सरकार के ही एक प्रतिष्ठित संस्था ने कहा कि बोफोर्स सौदे में बिन चड्ढा को कमीशन मिला है लेकिन उन्होंने नियम के अनुसार इसका टैक्स नहीं दिया। इस रहस्योद्घाटन पर जिस तरह केंद्र सरकार ने कोई पहल नहीं की और सीबीआई अदालत में मामला बन्द करने की अपील पर कायम रही है, इससे साफ है कि पालिसी और नीयत भ्रष्टाचार रोकने की नहीं बल्कि उनके बचाव की है। ऐसे में निश्चय ही भ्रष्टाचार यदि सबसे अहम नहीं तो कमरतोड़ महंगाई के सामने मसला जरूर बनना चाहिए। वर्तमान में महंगाई और भ्रष्टाचार दो ऐसे मुद्दे हैं जो किसी भी राजनीतिक पार्टी के एजेंडे में सर्वप्रथम होने चाहिए। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि उसका दामन साफ हो, दुर्भाग्य से भाजपा इस कसौटी पर खरी नहीं उतरती। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की बाकी का तार कोल घोटाला तो पुराना हो गया, लेकिन कर्नाटक में मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा का जमीन घोटाला और इनकी सरकार में शामिल रेड्डी भाइयों का माफिया तो ताजा मामला है जिसे भाजपा हाई कमान नजरंदाज करने के अलावा कुछ नहीं कर पा रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा की मुहिम को जनता का समर्थन तभी मिलेगा जब वह पहले अपने दामन को बेदाग बनाए।

राष्ट्रीय सहारा में सईद हमीद ने लेकिन सारे आतंकवादी संघी क्यों हैं? के शीर्षक से लिखा है कि इन सभी बम धमाकों के टारगेट कौन थे? मुसलमान या मुस्लिम इलाके या मुस्लिम उपासक स्थल, पहले राउंड में इन सभी बम धमाकों के लिए मुसलमानों को ही आरोपी ठहराया गया। वास्तव में यह हिन्दुत्व आतंकवादियों को बचाने की एक साजिश थी। विशाल परिदृश्य में देखा जाए तो हिन्दुत्ववादी आतंकवादियों ने जिस तरह मुसलमानों को मारो और उन्हीं को आरोपित करने की रणनीति अपनाई थीं उस पर क्रियान्वित करने वाले दो षड्यंत्रकारियों (1) वह हिन्दुत्ववादी जो बम धमाके किया करते थे (2) वह हिन्दुत्ववादी जो इन बम धमाकों के आरोप में बेगुनाह मुसलमानों को जेलों में बन्द कर देते थे, उनको यातनाएं देते थे और हिन्दुत्ववादी आतंकवादियों का आरोप अपने ऊपर लेने के लिए मजबूर करते थे। हम ने हिन्दुत्ववादियों की जिस दूसरी श्रेणी की ओर इशारा किया है, यह खाकी ड्रेस पहनते हैं, लेकिन अन्दर से यह भगवा मानसिकता में डूबे रहते हैं। इन दो वर्षों (2006-2008) में हिन्दुत्ववादी आतंकवादियों ने अपना मिशन बड़ी हद तक कामयाब कर लिया है और हर व्यक्ति मुसलमानों पर कटाक्ष करने लगा है कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं है, लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान क्यों है? आज ठाकरे, तोगड़िया, आडवाणी, मुंडे, सिंघल से यह पूछा जाना चाहिए कि सारे संघी आतंकवादी नहीं, लेकिन सारे आतंकवादी संघी क्यों हैं।

पटना से प्रकाशित साप्ताहिक नकीब ने विशेष ट्रिब्यूनल के गठन का प्रस्ताव में लिखा है। अजमेर, मक्का मस्जिद, मालेगांव बम धमाका और समझौता एक्सप्रेस पर हुए धमाकों की जांच जल्द से जल्द पूरी कर ली जाए और जो लोग इसमें लिप्त हैं उनके खिलाफ ठोस सबूत के साथ अदालत में चार्जशीट पेश कर दी जाए ताकि आतंकी सजा पा सकें। इस सिलसिले में जितनी भी देर की जाएगी इससे नुकसान का संदेह है। हो सकता है कि इस बीच सुबूत को मिटाने की कोशिश की जाए और इसी के साथ मामले को नया रुख देने की कोशिश की जाने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। इस सिलसिले में आरएसएस अध्यक्ष मोहन भागवत के उस बयान से संकेत मिलता है जिसमें उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया है कि सरकार हिन्दुओं के पीछे पड़ी है और इसके खिलाफ तरह-तरह के आरोप लगा रही है। निश्चय ही भागवत का इशारा असीमानंद की गिरफ्तारी और उनसे पूछताछ की तरफ ही है। इस संदर्भ में इस प्रस्ताव का जिक्र करना भी जरूरी है जो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कानून विभाग की ओर से हेने वाली कांफ्रेंस में सर्वसम्मति से पारित किया गया कि 1998 से लेकर अब तक देश के विभिन्न भागों में बम धमाकों की जो घटनाएं हुई हैं, केंद्र सरकार उसकी जांच कराए और इसके लिए एक विशेष अदालती आयोग गठित करे और उसकी रिपोर्ट एवं सुझावों की रोशनी में दोषियों के खिलाफ जरूरी कार्रवाई करे।

कश्मीर में फौज की संख्या घटाने का सवाल, वादी में वातावरण उचित, अहम फैसले लिए जा सकते हैं, के तहत अखबारे मशरिक ने लिखा है। जब से केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कश्मीर के मामले में दिलचस्पी लेनी शुरू की है। वादी के हालात धीरे-धीरे बेहतर होते जा रहे हैं। पत्थर फेंकने का सिलसिला भी बन्द हो गया है जो कुछ माह पूर्व वादी की परम्परा बन गई थी। विख्यात पत्रकार और बुद्धिजीवी दिलीप पडगांवकर की अगुवाई में भारत सरकार ने कश्मीर के लिए जिन वार्ताकारों का चयन किया है वह भी अपना काम बड़ी अच्छी तरह से कर रहे हैं और लोगों से मिलकर उनका दुखदर्द बांट रहे हैं। इन हालातों में यदि घाटी में फौज में कमी की जाए तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। इससे लोगों तक यह पैगाम जाएगा कि सरकार उनकी भावनाओं से न केवल परिचित है बल्कि उसका सम्मान करते हुए ऐसी सूरत निकाली जाए कि उनके हृदय का कांटा जाता रहे। घाटी के हवाले से इस समय कुछ अहम फैसले करने का अच्छा समय है। आश्चर्य नहीं कि इससे हवा का रुख इधर से उधर हो जाए और वहां की काया पलट हो जाए।

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